श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने धर्म प्रवचन देते हुए कहा कि अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता, इसका मूल्य जीवन की असफलता का पश्चाताप करते हुए ही चुकाना पड़ता है। आरंभ छोटे-छोटे दोष- दुर्गुणों से करना चाहिए। उन्हें ढूंढ़ना और हटाना चाहिए। इस क्रम से आगे बढ़ने वाले को जो छोटी-छोटी सफलताएं मिलती हैं, उनसे उसका साहस बढ़ता चलता है।
उस सुधार से जो प्रत्यक्ष लाभ मिलते हैं, उन्हें देखते हुए बड़े कदम उठाने का साहस भी होता है और उन्हें पूरा करने का मनोबल भी संचित हो चुका होता है। गुण, कर्म, स्वभाव में आवश्यक सुधार किए बिना प्रगति नहीं हो सकती है।
गुण, कर्म, स्वभाव का मानवोचित परिष्कार करते हुए व्यक्तित्व को सुविकसित करने में संलग्न होना चाहिए। वे आगे बोले कि दुर्व्यवहार का कुफल दुःख और बेचैनी है, फिर वह चाहे अपने साथ हो या दूसरे के साथ। भलाई की बात यह है कि आप जो औरों से अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही बरताव दूसरों के साथ भी करें। बुद्धि और विचार की शक्ति मनुष्य में अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक है, इसलिए वह अपनी भलाई का विचार कर सकता है। बुद्धि के सदुपयोग या दुरुपयोग से ही वह सुख-शांति या क्लेश और कलह की परिस्थितियां तैयार करता है। इसका दोषारोपण किसी दूसरे पर करना, मनुष्य की जड़ता का ही चिह्न समझा जाएगा।
मनुष्य अपने कर्मों का फल आप भोगता है, इसके लिए किसी दूसरे को अपराधी नहीं कर सकते। अपनी शारीरिक त्रुटियों पर विचार कीजिए। आज के जन-जीवन में पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू, मिर्च-मसाले, मिठाई- खटाई, अंडे, मांस आदि कितने अभक्ष्य पदार्थों का सेवन लोग करते हैं। लोगों के स्वास्थ्य खराब हों, तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है। एक ओर खाद्य-पदार्थों में दूषित तत्त्वों का प्रवेश और दूसरी ओर बढ़ती हुई असंयम की प्रवृत्ति, दोनों ने मिलकर स्वास्थ्य की ऐसी बरबादी मचाई है कि लोगों में चलने-फिरने जितनी ही शक्ति शेष बची है। मौसम के परिवर्तन को सहन करने की शक्ति तक नहीं रही, जिसके फलस्वरूप सारा जीवन दुःख, शोक और रोगों के रूप में दिखाई देता है।