चेन्नई. माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में आचार्य महाश्रमण ने ‘ठाणं आगमाधारित प्रवचन में कहा पांच इन्द्रियों में एक इन्द्री स्पर्श भी होती है। स्पर्श से पुण्य और पाप भी होते हैं जिस प्रकार स्पर्श से किसी की समस्या का समाधान अथवा अनेक प्रकार की बीमारियों का इलाज भी किया जा सकता है तो किसी स्पर्श से कष्ट देने अथवा बुरे विचार से भी किया जा सकता है। स्पर्श सनेह और वात्सल्य का भी कारण हो सकता है। वैसे अस्पर्श साधना का एक प्रकार है। स्वयं द्वारा भी स्वयं के अंगों के स्पर्श का प्रयास न करना, एक विशेष साधना की बात हो सकती है।
स्पर्श एक विज्ञान है। स्पर्श कितना करना और नहीं करना, इसकी सीमा आदमी ही नहीं साधुओं में भी हो, ऐसा प्रयास होना चाहिए। साधुओं को गृहस्थों के सिर पर हाथ रखने से बचने का प्रयास करना चाहिए। स्पर्श की एक सीमा बताई गई है। कितना स्पर्श करना और कितना स्पर्श नहीं करना एक विशेष बात हो सकती है।
आगम में वर्णित बारह देवलोकों में तीसरे व चौथे देवलोक सनतकुमार और माहेन्द्र में स्थित देवताओं की काम की इच्छा केवल स्पर्श से ही पूर्ण करने की व्यवस्था बताई गई है। हालांकि देवलोक में जैसे-जैसे ऊपर की गति होती है देवताओं की निर्मलता और भी बढ़ती जाती है, ऐसा प्रतीत हो रहा है। जैसे एक नीच मनुष्य की भाषा और उच्च व्यक्ति के व्यवहार में निर्मलता का प्रभाव होता है, वैसे ही देवलोक में भी गति के हिसाब से निर्मलता का प्रभाव देखने को मिलता है। जो निर्मलता प्रथम और दूसरे देवलोक में प्राप्त नहीं होती, वह तीसरे और चौथे देवलोक में आसानी से ही प्राप्त हो सकतीे है।
साधु के लिए कहा गया कि सगी बहन और सगी मां भी हो तो एक आसन पर नहीं बैठना चाहिए और एकांत भी न हो। साधु की साधना के लिए उपादान का अच्छा और निमित्त के लिए ठीक हो, ऐसा प्रयास होना चाहिए। निमित्त साधु को साधना से विचलित कर सकता है। सामान्य रूप से निमित्त का साधना पर प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए साधुओं के लिए विशेष नियमों का प्रावधान है। कोई सौ वर्ष की महिला हो तो भी उससे दूरी बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। साधु नियमों का अच्छा पालन करे तो उसकी आत्मा की निर्मलता बनी रह सकती है। साधु को परम की प्राप्ति के लिए अपरम का त्याग करने का प्रयास करना चाहिए। उनके लिए कुछ सामयिक व्यवस्थाएं दी गई हैं। हमारे पूर्वजों ने साधुपन की सुरक्षा का कितना ध्यान दिया था। पांच महाव्रतों की 25 भावनाओं को आत्मसात करने का प्रयास हो तो कितना अच्छा हो सकता है। प्रतिक्रमण का भाव भी पता चल जाए और उसका चिंतन होता रहे तो नियमों का अच्छा अनुपालन हो सकता है।
साधु को प्रतिक्रमण छोडऩे, प्रतिक्रमण को हल्के में या निद्रा लेने अथवा प्रतिक्रमण के अतिक्रमण से बचने का प्रयास करना चाहिए। काम-धंधे में से भी समय निकाल कर प्रतिक्रमण किया जाए तो शुद्धता की बात हो सकती है। प्रवचन के बाद आचार्य ने चतुर्दशी तिथि पर साधु-साध्वियों को उनके आचार, व्यवहार और संकल्पों के प्रति जागरूक रहने की प्रेरणा दी। इस मौके पर आचार्य ने जैन विश्व भारती के नवनिर्वाचित अध्यक्ष अरविन्द संचेती, निवर्तमान अध्यक्ष रमेशचंद बोहरा तथा पूर्व अध्यक्ष धर्मचंद लूंकड़, व न्यासी चांदरत्न दुगड़ ने आचार्य के समक्ष नवीन आगम ‘रायपसेणियं’ को लोकार्पित किया। आचार्यश्री ने बताया यह एक उपांग है और इसमें कथानक के माध्यम से राजा श्रेणिक और मुनि कुमारश्रमण केशी के बीच हुई चर्चा का वर्णन है।