चेन्नई. 04 सितम्बर को पुरुषवाक्कम स्थित एएमकेएम में विराजित महासती उमराव ‘अर्चनाÓ सुशिष्याएं साध्वी कंचनकंवर व साध्वी डॉ.सुप्रभा ‘सुधाÓ के सानिध्य में साध्वी डॉ.इमितप्रभा ने कहा कि सभी जीवों से मैत्री भाव रखना प्रेम है।
स्वयं की आत्मा के समान दूसरों की आत्मा समझना प्रेम है। प्रेम की भाषा मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, देव तथा सृष्टि के समस्त जीव समझते हैं। समाज में रहते हुए मनुष्य को तन, मन, धन के सहयोग की आवश्यकता रहती है।
जो परस्पर सहयोग नहीं करता वह मानव नहीं है। आपस में सहयोग का आदान-प्रदान रहना चाहिए। देने का नाम दान है, फिर चाहे वह एक रुपए का हो या लाखों का। सहयोग पहले देना चाहिए और फिर लेना चाहिए। आज मनुष्य देना तो भूल रहा है और लेने की भावना रखता है। दान देकर फल की इच्छा से कर्मबंध होता है। दान चार प्रकार का है- पहला सुपात्रदान जो पंचव्रतधारी संयमी को साधना में सहायक वस्तुएं दान देना।
दूसरा पात्रदान साधर्मिक को दिया गया दान। तीसरा अपात्रदान, जो साधर्मिक नहीं है उसे देना। चौथा कुपात्रदान में व्यक्ति देखता नहीं कि किसे दे रहा है, जो दान शराबी, जुआरी आदि अशुभ कर्मों कानिमित्त बन जाए। प्रभु ने कहा है ज्ञान, दर्शन, चारित्र के साथ सम्यकत्व होना चाहिए।
साधना, आराधना, दान-धर्म करने में ज्ञान और विधि मालूम होनी चाहिए नहीं तो कर्म निर्जरा की जगह कर्मबंध हो जाता है। सुपात्र और कुपात्रदान में बड़ा अन्तर है। जब कष्ट, परेशानी आती है तो धर्मध्यान में लगते हैं और सुखों में धर्म को भूल जाते हैं। जो सदैव जिनशासन, धर्मध्यान में रहते हैं, देव भी उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं। सुपात्रदान से शुभकर्म के साथ कर्मों की निर्जरा भी होगी। नमिराजा कहते हैं कि संयम दान से बढ़कर है, सुपात्रदान से बढ़कर अभयदान है, इसमें छह काय जीवों की अहिंसा होती है।
साध्वी नीलेशप्रभा ने कहा कि प्रभु का दिव्य संदेश है कि सभी जीवों से प्रेम करो। सभी धर्म, दर्शनों में प्रेम का महत्व है। त्रैलोक्य में प्रेम से बड़ी शक्ति नहीं। जिस हृदय में प्रेम का वास है, वहां ईश्वर है। प्रेम लेनदेन की वस्तु नहीं, दूसरों की साता के लिए स्वयं के सुखों का त्याग प्रेम है। प्रेम अनूभति है, दृश्य नहीं। जो घटता-बढ़ता रहे वह प्रेम नहीं। शाश्वत प्रेम अखण्ड रहता है। ज्ञानी कहते हैं प्रेम गुण और कामना रहित होना चाहिए। जब तक स्वार्थपूर्ति होती है प्रेम रहता है, जिस प्रेम का आधार नष्ट हो जाए फिर नहीं रहता वह मात्र प्रेमाभास है।
कामना विष है जो प्रेम की निर्मलता को नष्ट कर कर्मबंध का कारण बनता है। सच्चे प्रेम में वासना विकार नहीं होते। गाय सभी जगह घूमती, चरती है लेकिन उसका ध्यान अपने बछड़े में रहता है, ऐसा प्रेम जीवमात्र से करें तो अपने परम लक्ष्य को पा सकते हैं।
मनुष्य में प्रेमभाव बिना समत्व भाव नहीं, परस्पर सामंजस्य भी नष्ट हो जाता है। रिश्तों में राम-दशरथ, भरत-राम, महावीर-गौतम, सीता-कौशल्या के जैसा प्रेम होना चाहिए, तो ही विश्व हमारा होगा और हम विश्व के होंगे। आजकल परिवार-रिश्तों में प्रेम की नदियां सूखती जा रही है। गलती हो जाए तो तुरंत क्षमायाचना कर प्रेम बढ़ाते रहेंगे तो उस गंतव्य तक पहुंचेंगे जहां सिर्फ प्रेम ही प्रेम है।
साध्वी डॉ.हेमप्रभा ‘हिमांशुÓ ने पुच्छीशुणं सम्पुट की सामूहिक रूप से साधना करवाई। धर्मसभा में ब्यावर सहित अनेकों जगहों से बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की उपस्थिति रही।
5 अक्टूबर को नवपद ओली आराधना, श्रीपाल चारित्र और सायं 8 से 9 बजे तक नवकार महामंत्र का सजोड़े जाप होगा। मध्यान्ह पुच्छिशुणं प्रतियोगिता आयोजित होगी। 6 अक्टूबर को एपीएल की टीमों को पुरस्कार वितरण होगा। 8 अक्टूबर से उत्तराध्ययन सूत्र आराधना की शुरुआत होगी। शरद पूर्णिमा पर 15-15 सामायिक के साथ रात्रि जागरण होगा।