गुजरातीवाड़ी जैन संघ में विराजित आचार्य मेघदर्शनसूरीश्वर ने प्रवचनमाला में कहा कि शुद्ध परिणाम ही हमें मोक्ष तक पहुंचा सकता है। शुद्ध परिणाम के लिए शास्त्रों का गहन अभ्यास अत्यंत जरूरी है। शास्त्र अभ्यास से ही परमात्मा की आज्ञा पता चलती है। परमात्मा की आज्ञा के अनुसार जो भाव है, उसको ही शुद्ध परिणाम कह सकते हैं। कभी कभार मार्ग अनुसारीता से युक्त, सामान्य ज्ञान से, गुरुकुलवास से, गुरु के प्रति असीम बहुमान भाव से, परमात्मा के प्रति अहोभाव से भी शुद्ध परिणाम आत्मा में पैदा होता है। पूरे संसार का आधार घर ही है। घर के साथ बिना रिश्ता तोड़े शुद्ध परिणाम पैदा नहीं हो सकता। हर घर में दीक्षा का नारा शुरू करना चाहिए। संसार में सार कुछ भी नहीं है।
उन्होंने कहा कि वैराग्य वाली आत्मा को गुरुकुलवास में रहकर दीक्षा जीवन के पालन का सामर्थ्य खुद में है या नहीं, वह जांच लेना चाहिए। वैराग्य और संयम पालने का सामर्थ्य, ये दो ही संयम जीवन स्वीकारने की योग्यता है। हमारे भीतर की शक्ति को उजागर करनी चाहिए। इच्छाओं का संयम ही सच्चा संयम है। इच्छा जैसा बड़ा कोई पाप नहीं। इच्छा जैसा कोई दु:ख नहीं। सभी दु:ख, सभी पापों का मूल अगर कोई है तो वह इच्छा ही है। इच्छा करनी हो तो एक ही इच्छा कीजिए कि मैं बिना इच्छा वाला बन जाऊं। इच्छा जब तक पूर्ण नहीं होती तब तक वह हमको दु:खी ही करती है। हमें सुख चाहिए, दु:ख नहीं चाहिए तो हमें एक भी इच्छा पैदा करनी नहीं चाहिए। खाने की इच्छा अपने आप हो जाती है लेकिन क्या खाना, वह इच्छा तो हम खुद ही पैदा करते हैं, उसका संयम करना चाहिए।