कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): बुधवार को आचार्यश्री तुलसी महाप्रज्ञ चेतना सेवा केन्द्र में बने ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को अहिंसा यात्रा के प्रणेता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आचार्यश्री महाप्रज्ञजी द्वारा विरचित संस्कृत भाषा के ग्रन्थ ‘सम्बोधि’ पर आधारित पावन सम्बोध प्रदान करते हुए कहा कि दो प्रकार के सुख होते हैं-पौद्गलिक सुख और आध्यात्मिक सुख।
दूसरे शब्दों में कहें तो भौतिक सुख और आत्मिक सुख। इसे एक और नाम से समझा जा सकता है लौकिक सुख और अलौकिक सुख। सम्बोधि में मुनि मेघ ने भगवान महावीर से प्रश्न किया-भगवन! सुख सभी को प्रिय लगता है और दुःख सभी के लिए अप्रिय होता है। फिर आदमी प्रिय सुख को छोड़कर अप्रिय लगने वाले दुःख को क्यों अपनाए?
भगवान महावीर ने मुनि मेघ को मंगल बोध प्रदान करते हुए कहा कि जो सुख पदार्थों से अर्थात् पुद्गलों से प्राप्त होता है, वह वास्तव में सुख नहीं दुःख ही होता है। मोहाग्रस्त मनुष्य उसे सुख मान लेता है और दुःख के गर्त में गिरता चला जाता है। भौतिक पदार्थों से प्राप्त सुख क्षणिक होते हैं। इन्द्रियों से प्राप्त सुख नहीं, सुखाभास होता है, जो आगे दुःख प्रदान करने वाला होता है।
आदमी जिस भौतिक सुख को सुख मान लेता है, वास्तव मंे उसके आगे का परिणाम दुःख प्रदान करने वाला ही होता है। मोहाकुल मनुष्य उसे ही सुख मानता है। उदाहरण के तौर पर जिस प्रकार तलवार के धार पर लगी शहद कुछ क्षण के लिए मधुरता का अहसास तो करा सकती है, किन्तु उसका परिणाम यह होगा कि उससे जुबान अथवा मुंह भी कट सकता है।
जिस प्रकार किंपाक फल देखने में सुन्दर और स्वाद में मीठा भले होता है, लेकिन उसको खाने वाला मौत को प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार एक बार तो काम-भोग क्षण भर के लिए सुख प्रदान करने वाले तो हो सकते हैं, लेकिन बहुत काल तक वह दुःख देने वाले ही होते हैं। काम-भोग तो अनर्थों की खान है।
आदमी इसमें आसक्त हो जाता है और दुःख को प्राप्त हो जाता है। इसलिए कहा गया है कि तात्कालिक सुख गौण है, उसका परिणाम महत्त्वपूर्ण होता है। जिस प्रकार खुजली करना तो तात्कालिक सुख देता है, किन्तु उसके आगे का परिणाम बुरा होता है। उसी प्रकार पदार्थों का सुख भले तात्कालिक सुख प्रदान करने वाला हो, किन्तु उसका परिणाम दुःख देने वाला ही होता है।
आध्यात्मिक मार्ग कुछ कष्टों से भरा हुआ हो सकता है, उसमें कुछ परिषह भी आ सकते हैं, किन्तु उसका परिणाम अलौकिक सुख प्रदान करने वाला होता है। इसलिए आदमी को भौतिक सुखों का त्याग कर आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री ने एक कथानक के माध्यम से लोगों को किसी कार्य में अति करने से बचने की प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि किसी भी कार्य की अति नहीं होनी चाहिए। अति सभी जगह त्याज्य है। पुद्गलों के प्रति अति आसक्ति और अति भोग भयंकर परिणाम वाले हो सकते हैं।
इसलिए आदमी को अति पौद्गलिक सुखों से बचने का प्रयास करना चाहिए और आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में पहुंचे आर.एस.एस. के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य श्री हस्तीमल हिरण ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी विचाराभिव्यक्ति दी। भिक्खी बाई ने आचार्यश्री से 30 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। इनके अलावा अनेकों तपस्वियों ने अपनी धारणा के अनुसार आचार्यश्री से अपनी तपस्या का प्रत्याख्यान किया।