योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी के शिष्य मुनि ध्यानप्रभ विजयजी ने प्रवचन में कहा कि सम्यक् दर्शन का अर्थ है भगवान की वाणी के ऊपर पूर्ण श्रद्धा रखना। सम्यक् दर्शन को पारसमणि, चिंतामणि, चंद्रकांतमणि आदि की उपाधि दी गई है। उन्होंने कहा सम्यक् दर्शन होने के बाद ही हमारे भव शुरू होते हैं। परमात्मा के उपकार से हमें दुर्लभ मनुष्य भव मिला है। मनुष्य भव ही एक हैं जिसमें हम आराधना – साधना कर अनादिकाल से हमारे अंदर भरे कुसंस्कारों, पापों को तोड़ सकते हैं। मनुष्य भव में हम दुर्जन भी बन सकते हैं और सज्जन भी बन सकते हैं, साधु भी बन सकते हैं परमात्मा भी बन सकते हैं।
मानव को पांच इंद्रियों, स्मरण शक्ति, मन की शक्ति आदि मिली है, यदि वह इनका सदुपयोग करे, तो वह अपने लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। हम सोचते हैं, संसार में बहुत सुख है लेकिन संसार तो अपने भीतर ही है और हम सुख को बाहर ढूंढ रहे हैं। उन्होंने कहा सुख ऐसा होना चाहिए, जो सबको सुख दे। ऐसा सुख संसार में नहीं मिल सकता, वह तो मोक्ष में ही मिल सकता है। मोक्ष का सुख एक बार मिलता है, तो वह कभी जाने वाला नहीं होता। वह सुख किसी जीव को दुःख देने वाला नहीं होता। कायमी सुख मोक्ष में ही मिल सकता है। उन्होंने कहा कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य भव हमें मिला है और यही मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करने वाला है। इसका सदुपयोग आराधना- साधना के द्वारा करना चाहिए।
मुनि यशस्वीप्रभ विजयजी ने कहा कि सबसे बड़ा पाप वह होता है, जिस पाप का हम प्रायश्चित्त न करें। सबसे बड़ी साधना मन की साधना होती है। सबसे बड़ा तप आयंबिल तप होता है। उन्होंने कहा धर्म चार प्रकार के दान, शील, तप और भाव होते हैं। चार संज्ञा आहार संज्ञा, परिग्रह संज्ञा, मैथुन संज्ञा और भय संज्ञा होती है।