आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी ने श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में धर्म प्रवचन के माध्यम से श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कहा कि आधुनिकीकरण के नाम पर आज का भारतीय समाज पाश्चात्य प्रभावों से अछूता नहीं रहा हैं. यूरोपीय देशों के समाजों में माँ बाप, महिलाओं एवं बच्चों के दायित्व तथा भारतीय समाज में इनकी परम्परा बिलकुल उलट हैं. मगर पाश्चात्य प्रभाव में हमारा समाज भी इन विकारों से प्रभावित हो रहा हैं. इस रुग्ण मानसिकता के चलते ही भारतीय परिवार का मूल स्वरूप संयुक्त परिवार विघटित हो चूका हैं. वृद्धावस्था में बच्चें माँ बाप को वृद्धाश्रम भेजने लगे है इन्हें केवल सामाजिक विकार ही कह सकते हैं. समाज एक यथार्थ है शाश्वत सत्य है जिसकी छत्रछाया में हम सभी सुरक्षा के भाव की अनुभूति करते हैं.
मगर कई बार समाज की मान्यताओं के नाम पर प्राचीन रुढियों तथा रीती रिवाजों को भी थोपा जाना ठीक नहीं हैं. इस तरह के अप्रासंगिक बंधन में व्यक्ति स्वयं को असहाय पाता है तथा उसका समाज के साथ सीधा टकराव सम्भव हैं. कई बार समाज व्यक्ति के उत्थान में सहायक होता है तो कई बार रीतियों, मूल्यों एवं मान्यताओं के नाम पर बाधक भी बन जाता हैं. वे आगे बोले कि हमें हंस की तरह जीवन जीना चाहिए जहाँ पानी होता है वहां हंस रहते हैं जहाँ जल नहीं होता है वहां हंस नहीं रहते हैं. अतः समाज में रहने का आशय यह है कि हम सामाजिक एवं सभ्य बनकर जीवन जीएं. यदि हमारे समाज अथवा कुछ लोगों में खराबी है तो बहुत से लोगों की तरह उसकी भर्त्सना करके मुँह फेर लेने की बजाय हमें उसे गंभीरता से लेना चाहिए.
यदि कोई खराबी है तो हमें इसके समाधान खोजने चाहिए तथा सभ्य समाज के निर्माण की ओर कदम बढ़ाने चाहिए. हरेक समाज में बुरे लोग होते है ये उस सड़े अंग की तरह होते है यदि समय पर इनका ईलाज नहीं किया जाए तो यह सम्पूर्ण शरीर का नाश कर देंगे. इसलिए हमारे समाज की बुराईयों पर इसलिए आँख न मूंदे कि यह हमसे अभी तक दूर है, क्योंकि अगला नम्बर हमारा ही होगा, समाज में जो कुछ हो रहा है जैसे संस्कार व सभ्यता का चलन हैं हम वैसे ही बनेंगे. न केवल यह व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करेगा बल्कि आने वाली नस्लों पर तत्कालीन समाज का प्रभाव पड़ना सुनिश्चित हैं. ये प्रभाव अच्छे पड़े या बुरे यह हमारे विवेक पर निर्भर करता हैं.