भावुक होकर कहा कि ना बचपन में माँ का और ना ही साध्वी जीवन में गुरू का सानिध्य अधिक समय तक नहीं मिला। देश की सुविख्यात जैन साध्वी और मालव मणि की उपाधि से अलंकृत साध्वी चांदकुंवर जी महाराज की पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित गुणानुवाद सभा में अपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए उनकी अंतिम सुशिष्या साध्वी नूतन प्रभाश्री जी की आंखें छलछला उठीं। भावुक होकर उन्होंने कहा कि बचपन में एक वर्ष से अधिक उन्हें अपनी माँ का सानिध्य नहीं मिला और संन्यासी जीवन में भी सिर्फ 14 माह में ही उनकी गुरुणी मैया चांदकुंवर जी महाराज का देवलोक गमन हो गया जिससे ना तो एक पुत्री के रुप में और ना ही एक शिष्या के रुप में मैं अपने दायित्व का निर्वहन कर पाई, लेकिन संतोष है कि गुरुणी मैया साध्वी चांद कुंवर जी महाराज की सुशिष्या होना मेरा गौरव और सौभाग्य है।
गुणानुवाद सभा में अपनी दाद गुरुणी के उपकारों का स्मरण करती हुईं साध्वी रमणीक कुंवर जी महाराज ने कहा कि मैं अपने चमड़े से जूते बनाकर भी उन्हें पहनाऊं तो उनके उपकारों से उऋण नहीं हो सकती। गुणानुवाद सभा में मूर्तिपूजक जैन समाज के अध्यक्ष और चातुर्मास कमेटी के संरक्षक तेजमल सांखला ने उन चमत्कारों का वर्णन किया जो साध्वी चांदकुंवर जी महाराज की सिद्धि से हुए थे। साध्वी चांदकुंवर जी महाराज की 38वीं पुण्यतिथि के अवसर पर 108 सामूहिक एकासना कराने का लाभ डॉ. पारस-पंकज गूगलिया परिवार ने उठाया तथा इस मौके पर परवाना और लकी ड्रा का लाभ नीमचौक रतलाम निवासी माणिकचंद सुभाषचंद बाफना परिवार ने लिया।
साध्वी चांदकुंवर जी महाराज की पुण्यतिथि के अवसर पर कमला भवन में आयोजित सभा में सबसे पहले सामूहिक जाप किया गया। इसके बाद साध्वी जयश्री जी ने गुरू प्रेम से परिपूरित भजन का सुंदर गायन किया। तत्पश्चात साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने अपनी गुरुणी साध्वी चांदकुंवर जी को याद करते हुए कहा कि उन्होंने ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, साधना, तप और संयम के मार्ग पर चलकर अपने जीवन को महान बनाया। जीवन की अंतिम सांस तक वह चलती रहीं और उन्होंने कभी स्थिर वास नहीं किया। यह मेरा सौभाग्य है कि उन्होंने मुझे अंतिम शिष्या के रुप में स्वीकार किया। इसके बाद अपने जीवन के सौभाग्य और दुर्भाग्य को व्यक्त करते हुए साध्वी नूतन प्रभाश्री जी भावुक हो उठीं। उन्होंने बताया कि वह सिर्फ 6 वर्ष तक ही अपने माता-पिता के साथ रहीं। इसमें अधिकांश समय वह अपने नाना-मामा के घर पर रहीं। माँ के साथ तो वह मुश्किल से एक वर्ष ही रहीं। 6 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और संन्यास जीवन की ओर अग्रसर हुईं।
मेरा दुर्भाग्य रहा कि बचपन में मुझे अपनी माँ का वात्सल्य अधिक समय तक नहीं मिल सका। 18 वर्ष की उम्र में मेरी दीक्षा हुई और मेरा सौभाग्य रहा कि मैं साध्वी चांदकुंवर जी महाराज ने मुझे अंतिम शिष्या के रूप में स्वीकार किया, लेकिन यह साथ भी अधिक समय तक नहीं रहा। 14 माह में ही मेरी गुरुणी मैया का देवलोक हो गया। शायद यह मेरा दुर्भाग्य था। 14 माह में मैं शिष्या के रूप में अपनी गुरुणी मैया के प्रति प्रेम समर्पण और दायित्व का निर्वहन उस प्रखरता से नहीं कर पाई जैसा मुझे करना चाहिए था। इसके बाद साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने अपने सौभाग्य का जिक्र किया कि साध्वी रमणीक कुंवर जी महाराज ने 3-3 माँ का दूध पिया और मेरा सौभाग्य है कि मुझे एक नहीं, बल्कि 3-3 माँ साध्वी चांदकुंवर जी, साध्वी शांति कुंवर जी और साध्वी रमणीक कुंवर जी महाराज का आशीर्वाद मिला। साध्वी शांति कुंवर जी महाराज मेरी गुरू बहन हैं और बड़ी बहन माँ के समान होती है। उन्होंने मुझे माँ की तरह ही मेरे जीवन का निर्वाण किया है। उनकी सुशिष्या साध्वी रमणीक कुंवर जी भी माँ की तरह मेरी देखभाल कर रही है।
साध्वी चांदकुंवर जी ने दो बार शिवपुरी में किया चातुर्मास
मेरी दाद गुरुणी साध्वी चांदकुंवर जी महाराज ने शिवपुरी की पुण्य धरा पर दो बार चातुर्मास किया। 85 वर्ष पूर्व संवत् 1995 में जब वह शिवपुरी आईं तो कोचेटा परिवार की साध्वी मनोहर कुंवर जी महाराज ने दीक्षा ली। साध्वी चांदकुंवर जी महाराज को नवकार मंत्र में गहन आस्था थी और मंदसौर में जब वह धर्मसभा को संबोधित कर रही थी तो उनकी आस्था से स्थानक में केसर की वृष्टि हुई। उक्त बात साध्वी रमणीक कुंवर जी महाराज ने बताई। साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने बताया कि ग्वालियर से शिवपुरी आते समय किस तरह रात्रि में नवकार मंत्र के प्रभाव से वनराज सिंह मंदिर की तीन परिक्रमा लगाकर वापस लौट गया, लेकिन उसने किसी भी साध्वी पर हमला नहीं किया।
छह वर्ष की उम्र में ही साध्वी जी को संसार की व्यर्थता का हुआ था बोध
साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने कहा कि साध्वी चांदकुंवर जी का सांसारिक नाम जीतकुंवर था। वह दो माह की थी तो उनके पिता का निधन हो गया। 3 वर्ष की उम्र में उनकी माँ भी चल बसीं। 6 वर्ष की उम्र तक उन पर भयंकर जुल्म और सितम ढहाए गए जिससे उन्हें संसार की व्यर्थता का बोध हुआ और जब वह साध्वी प्रेमकुंवर जी के संपर्क में आईं तो उन्होंने श्वेत वस्त्र पहनना पसंद किया। 6 वर्ष की उम्र में बबूल के पेड़ के नीचे बिना बैण्ड बाजे और बिना मंगल गान के सिर्फ 4-5 लोगों की उपस्थिति में उनकी दीक्षा संवत् 1966 में संपन्न हुई। उन्होंने अपनी गुरुणी मैया के सानिध्य में लौकिक और शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किया। संस्कृत और प्राकृत भाषा भी सीखी।