नार्थ टाउन के ए यम के यम स्थानक में गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने कहा कि साधु साध्वी श्रावक श्राविका को भगवान ने शाश्वत काल के लिए तीर्थ का निरुपण किया । जिसका तीनों काल में विनाश नहीं होता। शेष द्रव्य तीर्थों का विनाश होता रहता है। परन्तु भगवान द्वारा निरुपित तीर्थ का दीपक सदैव जलता रहता है। इसमें जीव स्वयं भगवान द्वारा प्ररुपित धर्म का पालन कर तीर्थ बन जाती है। ये सदाकाल पवित्र रहता है। शुद्ध आत्मा की सफाई निरन्तर होती रहती है। सभी पापों की मलिनता साफ हो जाती है और आत्मा कंचन के समान चमचमा उठती है, चातुर्मास में अशुभ से निवृत्ति के लिए, मिथ्यात्व का विसर्जन करने के लिए धर्म का व्यापार होता है।
चतुर व्यक्ति ही चार्तुमास का सम्पूर्ण लाभ उठा सकता है। भगवान के अनुसार साधु का चातुर्मास चार मास का होगा ही। साधु का चार्तुमास तो निश्चित है पर आप विनती कर चातुर्मास कराते हो तो ये आपकी कसौटी हैं कि आपने कितनी जिनवाणी श्रवण की, कितना धर्म ध्यान किया, कितना त्याग तपस्या की। साधु चार्तुमास के निमित्त मात्र है । जो ये चार मास चतुर्गति रुप संसार से मुक्ति दिलाने के लिए होते हैं। यदि आपने चातुर्मास में विवेक पुवक धर्म की आराधना की है कर्म मल को धोया है तो आपको सच्चे आनन्द की अनुभूति होती है।
शान्ति से सामायिक, प्रतिक्रमन कर अपनी आत्मा को पवित्र बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए। यदि प्रवचन के एक घंटे के लिए भी आप संसार का त्याग नहीं कर सकते तो आप कौन सेठ चक्रवर्ती बन जाओगे। तींथकर को भी अपना पद छोड़ संसार से विदा होना पड़ता है तो हम है ही क्या? इतना जानते हुए भी यदि हम चार्तुमास का लाभ न ले तो चातुर्मास का क्या फायदा।
लाभ उठाने के लिए स्वयं को तीर्थ का एक अंग बन धर्म स्थान में आना पड़ेगा। क्योंकि आत्मा को मलिनता से बचाने में आप स्वयं ही समर्थ है इसलिए अन्य तीर्थों में जाने की क्या आवश्यकता। अति पुण्यवाणी से ये चातुर्मास का संयोग मिलता है। इसलिए इसका पूर्ण लाभ उठाने का प्रयत्न करना चाहिए।