आत्मबन्धुओ क्षुल्लक निरग्रन्थिय- साधु के अन्दर कैसी चर्या होनी चाहिए इसका विधान है। साधु गृहत्यागी होते हैं जिन वस्तुओं का त्याग कर दिया, गृहत्याग कर दिया, ममत्व भाव नहीं रखना भी संयम को सुरक्षित रखता है वो जानते है कि किस लक्ष्य के लिए मैनें संयम लिया है। गृहत्याग करने के बाद कैसे रहना । विधा दो प्रकार की विधा और अविधा। जीव में उपयोग लक्ष्ण होता है जड़ में उपयोग लक्ष्य नहीं होता है अविधा को मित्यात्व बताया है।
अविधा उसके पास है तो संसार परिभ्रमण बढ़ जाता है विधा है तो वो संसार से भव पार हो सकता है उनका लक्ष्य होता है मोक्ष रुपी लक्ष्मी को प्राप्त करना। उसके लिए प्रयत्न करना है। भगवान ने साधुजी की हर चर्या को गुप्त बताया है सबसे अनासक्त रहना। गृहस्थ के घर से ही गोचरी, पानी लाकर अपना जीवन निर्वाह करते है सभी के साथ मैत्री भाव रखते हैं किसी की भी विराधना करने की इच्छा नहीं करते है पातरे में गृहस्थ जो देता है। उसी का भोग करते है किसी भी चीज का संग्रह नहीं करते हैं साधु साध्वी तो कनक और कामिनी के त्यागी होते हैं विधा है तो उसकी गति सुगति की अविधा है तो उसकी गति दुगति की हैl