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साधार्मिक भक्ति तो सम्यक्त्व की महान् उपासना है: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरिजी

साधार्मिक भक्ति तो सम्यक्त्व की महान् उपासना है: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरिजी

किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में योगनिष्ठ आचार्यश्री केशरसूरीजी के समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने प्रवचन में कहा चित्त को अपने वश में करने से अपने जीवन में के तीन शत्रु खड़े हो जाते हैं वचन, शरीर और व्यवहार। ये तीनों शत्रु जैसे बर्ताव करने लग जाते हैं। क्रोधी व्यक्ति के शब्द हमेशा अशांत निकलते हैं। वचन, शरीर और व्यवहार को शांत बनाना है तो मन को शांत बनाओ। जिसकी काया शांत होती है, उसकी इंद्रियां शांत रहती है।

ऐसा कहा जाता है चंचलता मन का स्वभाव है, व्याधि शरीर का स्वभाव है, क्यों न हम उसे बदल डालें यानी शुभ विचारों में डाल दें? हमारा मन विचार करे बिना रहता नहीं है। ज्ञानी कहते हैं मन जब भी अशुभ विचारों में चला जाता है तब उसे शुभ आलंबन देना शुरू कर दो। साहित्य, स्थान, संगति तीनों बदल दो तो मन शुभ विचार के अंदर चला जाएगा। क्रिया को स्थिर करने के लिए काया को स्थिर करो। शास्त्रकारों ने कहा एक समय मे एक ही उपयोग होता है, लेकिन योग, प्रवृत्ति या क्रिया कई हो सकती है। मन के उपयोग से यह संभव हो सकता है।

आचार्य भगवंत ने कहा मन का खेल बहुत गजब का है। मन की स्थिति को स्थिर करने के लिए यम- नियम का पालन करना चाहिए। ज्ञानी कहते हैं कई आत्माएं ऐसी होती है जो पाप करते हुए भी पाप का घोर पश्चाताप करती है। उनका पाप अतिचार तक ही रहता है। पश्चाताप उसी का हो सकता है जो पाप पर्याप्त मात्रा में हो, अपर्याप्त मात्रा में नहीं। अनाचार रूप में पाप करोगे तो उसकी शुद्धि के लिए तपस्या एवं घोर पश्चाताप करना पड़ेगा।

उन्होंने कहा जो कथा अपनी व्यथा दूर करे, वही सच्ची कथा है। जो कथा व्यथा पैदा करे, वह किस काम की है? मन को स्थिर बनाने के चार संरक्षक है ज्ञान योग, भक्ति योग वैयावच्च योग और तप योग। अपनी विद्या विवेक के लिए होनी चाहिए, विवाद के लिए नहीं। संपत्ति दान के लिए होनी चाहिए। व्यवहार समाधान के लिए होना चाहिए। सौंदर्य शील के पालन के लिए होना चाहिए। सत्ता का उपयोग लोकोपकार के लिए होना चाहिए, अधिकार के लिए नहीं। उन्होंने कहा साधार्मिक का मतलब हमने गरीब मान लिया है, यह बहुत घृणित सोच है। उन्होंने कहा साधार्मिक भक्ति तो सम्यक्त्व की महान् उपासना है।

एक ज्ञानी और आगेवान लोगों में ये लक्षण होने चाहिए, वह सज्जन, श्रद्धावान, शीलवान, आत्मसंयमी व सदाचारी और साहसी होना चाहिए। सज्जन होने का अर्थ है जिसने दुराचार, व्याभिचार, अनाचार नहीं किया है। सज्जनता का दीपक जलाने के लिए श्रद्धा का घी डालना पड़ेगा। जिसको ज्यादा सत्ता मिलती है, उसे ज्यादा वचन और विचारों का संयम रखना चाहिए। चारित्र की रक्षा के लिए सोलह श्रृंगार का त्याग, स्नानादि नहीं करना, त्रिकाल पूजा, विगई आदि का त्याग, टीवी- मोबाइल आदि का त्याग, परस्त्री गमन का त्याग, विवाह आदि में कौतूहल बुद्धि से नहीं जाना, भूमि संथारा आदि का पालन करना चाहिए।

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