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साधना में गुणों के प्रकट होने पर भवितव्यता का परिपाक होता है: आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर

साधना में गुणों के प्रकट होने पर भवितव्यता का परिपाक होता है: आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर

किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कहा पंचसूत्र में साधना की तीन त्रिपदी बताई गई है शरणागति, दुष्कृतगर्हा और सुकृत की अनुमोदना करना। जीवन को साधनामय बनाने और साधना में प्रवेश के लिए त्रिपदी का आचरण आवश्यक है।

इनसे ही साधना की योग्यता का पता चलेगा। उन्होंने कहा मनुष्य जीवन साधना के लिए मिला है। शरणागति यानी अरिहन्त, सिद्ध, गुरु व धर्म की शरण लेना। इसके लिए सदुगुरु की शरण को स्वीकार करना। सद्गुरु की शरण प्राप्त करना बेहद कठिन है।

सद्गुरु की शरण में जाने के लिए पूर्ण समर्पण की भावना होनी चाहिए। शरणागति रुपी सद्गुरु को पाना है तो बुद्धि व अहंकार का त्याग करना पड़ेगा।

द्रौणाचार्य द्वारा एकलव्य के विद्या देने की प्रार्थना को ठुकराने पर भी एकलव्य ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, वह अपनी बुद्धि व अहंकार को बाहर छोड़कर आया था, इसलिए उसने कोई तर्कवितर्क या दलील नहीं दी।

उन्होंने कहा सद्गुरु जो कहे उसे तहत्ति कह कर स्वीकार कर लेना चाहिए। बुद्धि व अहंकार लेकर सद्गुरु के पास जाएंगे तो उनकी शक्ति काम नहीं करेगी। साधना में गुणों के प्रकट होने पर भवितव्यता का परिपाक होता है।
उन्होंने कहा हमें एक प्रश्न का उत्तर ढूंढना है। आप अपनी आत्मा से पूछो कि इतने सालों से धर्माराधना करने के बाद भी खाली कितना हुए। भगवान महावीर ने अपने परम शिष्य इन्द्रभूति के अहंकार को तोड़कर उन्हें खाली किया लेकिन दूसरे शिष्य गोशाला को खाली नहीं कर पाए। एक सुनार सोने पर कारीगरी कर सकता है लेकिन लोहे पर नक्सी नहीं कर सकता।
मैं आजीवन गुरु की सेवा करता रहूं और उससे मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो, यही भावना एक सच्चे शिष्य के अन्दर होनी चाहिए। जिसके हृदय में गुरु के प्रति बहुमान है, मोक्ष उससे दूर नहीं है। सद्गुरु की नजर में आपकी योग्यता सामने आने पर वे ज्ञान का सृजन कर देंगे। यदि आपकी तैयारी है तो सद्गुरु को पाना बहुत सरल है। उन्होंने कहा हमारा चित्त निर्मल होना चाहिए तब ही शरणागति के प्रति श्रद्धा भाव पैदा होगा।
उपमिति ग्रंथ के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा चित्तसौन्दर्य नगर उपद्रवों से रहित है। उपद्रव करने वाले राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ है लेकिन सर्वगुणों का निवास स्थान चित्तसौन्दर्य नगर है जहां निर्मल व शुद्ध चित्त है, उसके महाराजा शुभ परिणाम है व महारानी निश्प्रकंपता है।
सिद्धर्षि गणि कहते हैं यदि आपकी आत्मा का कल्याण करना है तो चित्त को निर्मल बनाओ। जिसका भाग्य मंद है वह अपना चित्त निर्मल नहीं बना सकता है। शुभ विचार निर्मल चित्त में ही पैदा होते हैं। निर्मल चित्त सब जीवों का हितकारी होता है। बुद्धि में अशुभ विचार रहने पर चित्त निर्मल नहीं हो सकता। आज हमारे विचारों की स्थिरता नहीं है।
हमें यह सोचना चाहिए कि जीवन में तकलीफ होगी तो उसे सहन कर लेंगे। आपके भावों की निश्प्रकंपता होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में शुभपरिणाम व निश्प्रकंपता की पुत्री क्षान्तिकुमारी यानी क्षमा का जन्म होता है।
उन्होंने कहा हमारे जीवन में भी क्षमा लानी है। जगत में जितनी सुंदर चीजें हैं उसमें क्षमा सबसे सुंदर व श्रेष्ठ है। प्रशम सुख सर्वगुणों का अलंकार है। वह क्षमा के बिना नहीं आएगा। सिद्धर्षि गणि ने इस प्रकार सुंदर व मार्मिक प्रस्तुति दी है जिससे बहुत सारी प्रेरणा मिलेगी।

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