जैन संत डाक्टर राजेन्द्र मुनि जी ने आदिनाथ भगवान के जीवन दर्शन पर प्रकाश डालते हुए उनकी गुण महिमा मे विरचित आचार्य श्री मानतुंग के भक्तामर स्तोत्र के माध्यम से नाम स्मरण का विवेचन किया!प्रभु का नाम स्मरण दवा से बढ़कर भी महा दवा का कार्य करती है! आवश्यकता है हमारा भक्त का रोम रोम समर्पित हो! भक्ति करते समय किंचित मात्र भी मन मे मोह वासना या सासारिक वस्तुओं की लालसा पैदा नहीं होनी चाहिए! अक्सर हमारा मन धर्म साधना के समय नाना भांति सांसारिक वस्तुओं को प्राप्त करने का इच्छुक बना रहता है इसीलिए मन को गुरुजनों ने उल्टी चाल घोड़े की उपमा से संवारा है!
जिस भावना का निषेध किया जाता है वही भावना बार बार उभर कर सामने प्रकट होती रहती है!उदारहण देते हुए मुनि जी ने उस साधक का वर्णन किया जिसको कहा गया साधना काल मे बन्दर का रूप स्वरूप नजर नहीं आना चाहिए जयोही साधना प्रारम्भ की गई त्यों ही हजारों की संख्या मे पल पल क्षण क्षण उसे बन्दर ही बन्दर चारों और नजर आने लगे परिणाम स्वरूप वह अपनी साधना मे असफल होता गया! वस्तुत डाक्टर की दवा मे अशुद्धता नहीं है मरीज के लेने मे ही सेवन करने मे विधि विधान मे ही त्रुटि रहती है अत : उसका असर परिणाम नहीं आ पाता! यही हालात हमारी साधना काल मे बना रहता है हम पूर्ण शुद्धि के साथ साधना रूपी दवा का सेवन नहीं कर पाते एवं दोष उन गुरुजनों परमात्मा प्रभु की साधना को देते है!
वस्तुत सफलता असफलता हमारी अपनी प्रवृति आराधना मे समाबिष्ट रहता है! सभा मे साहित्यकार श्री सुरेन्द्र मुनि जी द्वारा भक्तामर साधना मे साधक की महत्ता का विवेचन करते हुए कहा गया कि साधक वही होता है जो साधना को पूर्णतः साध लेता है सिद्ध कर लेता है। इस हेतु हमारे तन मन जीवन की शुद्धता आवश्यक है। साधक की तरह जीवन यापन करने पर ही साधना सफल होती है। दुनियादारी के विचारों की गंदगी से साधना भी असफल होती है!सभा मे महामंत्री उमेश जैन द्वारा स्वागत किया गया व सामाजिक सूचनाएं दी गई।