किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केसरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी म.सा. ने प्रवचन में परिषह अध्ययन का विश्लेषण करते हुए कहा कि जो आत्मा विनय गुण को दृढ़ बनाता है, वह परिषह कर सकता है। परिषह सहन करने के लिए आत्मबल की आवश्यकता होती है।
उन्होंने कहा विचार ज्यादा उसे ही आता है, जिसे स्वीकारभाव नहीं होते। विनय करने से ध्रुतिबल और संघयनबल मिलते हैं, तब परिषह सहन करने का सामर्थ्य मिलता है। ध्रुतिबल का मतलब है मन का धैर्य, मन की शुद्धि, मन की पूर्णता। परिषह रोज़ का अंश है जबकि उपसर्ग रोज़ का अंश नहीं है। परिषह के लिए उपसर्ग सहन करने का अभ्यास जरूरी है। परिषह 22 प्रकार के होते हैं। जिसको सामने से लेने जाएं, वह उपसर्ग है और जो बैठे-बैठे आए, वह परिषह है।
परिषह में दूसरों का भला होता है, उपसर्ग में दूसरों का भला नहीं होता। परिषह दूसरों को लाभ पहुंचाते हैं। बार-बार परिषह सहन करने से सहनशक्ति का विकास हो जाता है। ज्ञानी कहते हैं जो परिषह सहन करता है, वह साधना के मार्ग पर आगे बढ़ता है। उन्होंने कहा आदमी की यह खराबी होती है कि स्वयं कोई अच्छा काम करना भी नहीं और दूसरों को करने भी नहीं देना। हमें अपना कार्य उसमें डूबकर करते रहना चाहिए, दूसरों की ओर नहीं देखना चाहिए, सफलता अवश्य मिलेगी। हमें आध्यात्मिक गतिविधियों में अभिमान और स्पर्धा का विचार मन में नहीं लाना चाहिए। हमारे जीवन में सोच की बहुत अहम् भूमिका है, वह बहुत परेशान करती है।
उन्होंने कहा कल्याणक की भावपूर्वक साधना करने से तीर्थंकर नाम कर्म बंध होता है। केवलज्ञान पाने के लिए अंतर्मुहूर्त जितना समय भी नहीं लगता। मुनिश्री यशस्वीप्रभ विजयजी ने कहा कि हमें जीवन में ये चार चीजें व्यर्थ भाषण, व्यर्थ चिंतन, व्यर्थ दर्शन और व्यर्थ भ्रमण नहीं करना चाहिए। अभयदान, सुपात्रदान, कीर्तिदान, उचितदान और अनुकंपादान में सबसे बड़ा दान सुपात्रदान को बताया गया है। दान, शील, तप, भाव धर्म में दानधर्म को श्रेष्ठ बताया गया है। कहते हैं मनुष्यभव पाना है तो दान करना चाहिए। शास्त्रों में हर जगह दान की विशेष भूमिका बताई गई है।