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साधक जीवन का मूल आधार चारित्र है: गच्छाधिपति आचार्यश्री उयप्रभ सूरीजी म.सा.

साधक जीवन का मूल आधार चारित्र है: गच्छाधिपति आचार्यश्री उयप्रभ सूरीजी म.सा.

किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी म.सा. ने चारित्र पद की विवेचना करते हुए कहा कि चारित्र का अर्थ है आचरण, व्यवहार में जीवों को अभय देना, ऐसा विचार, जिसमें किसी अन्य को पीड़ा न पहुंचे।

चारित्र की प्रथम सीढ़ी यह है कि जीवन ऐसा बनाना कि व्यवहार, अचार- विचार से किसी को पीड़ा न पहुंचे। साधक जीवन का मूल आधार चारित्र है। वर्तमान का चारित्र भी मोक्ष देने वाला ही है, इसमें कोई संदेह नहीं। यदि वर्तमानकाल में मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो रही है, तो यह काल के कारण है। अनादिकाल से जीव कर्मवश बनकर संसार सागर में परिभ्रमण कर रहा है। जीव कभी कर्म का क्षय करता है, तो कभी कर्मों का बंध करता है। परंतु क्षय और बंध की प्रक्रिया से ही आत्मा का भव पार नहीं हो सकता है।

आत्मा के पूर्व संचित कर्मों को दूर करने के लिए सर्व पाप क्रियाओं का त्याग करना चारित्र है। चारित्र के पांच प्रकार बताए गए हैं सामायिक चारित्र, छेदोपस्थापनीय चारित्र, परिहार विशुद्ध चारित्र, सूक्ष्म संपराय चारित्र और यथाख्यात चारित्र। समभाव में स्थिर रहने के लिए अशुद्ध और सावध्य प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिक है। उन्होंने कहा भावनात्मक क्रिया के लिए अभ्यास करना जरूरी होता है। शारीरिक क्रियाएं कर पाएं या नहीं, भावनात्मक धर्म तो करना ही चाहिए। उत्तम वस्तु की प्राप्ति उत्तम भावों से ही होती है। उत्तम भाव ही मोहनीय कर्मों का क्षय कर सकता है। मोहनीय कर्म को तोड़ने की ताकत सम्यक् ज्ञान में है। जीव की रक्षा जो पल-पल करे, वह संयमी कहलाता है।

आज मोह की स्थिति ऐसी हो गई है कि सम्यक् ज्ञान प्रगट ही नहीं हो रहा है। उन्होंने कहा नींद की दवा पैसे से मिल सकती है परंतु नींद पैसे से नहीं मिल सकती, उसके लिए पुण्य जरूरी है। संयमी आत्मा जीव की रक्षा करती है और संसारी व्यक्ति अजीव की रक्षा करने में लगा हुआ है। साधु, जीवों को कैसे फायदा हो, यह देखते हैं जबकि संसारी को स्वयं को कितना फायदा मिले, वे यह देखते हैं। मान और अपमान में समता रखे, वे संयमी होते हैं। दुर्गुण के काल में भी सम्यक् दर्शन या सम्यक् ज्ञान हो तो वह भी मोक्ष का कारण बन सकता है। स्पर्धा, अभिमान, क्रोध आदि के भाव या निमित्त से ली हुई दीक्षा भी सार्थक होती है परंतु अगर समय बीतने पर ये सभी दोष दूर होंगे, तो ही सार्थक है। अगर यह दोष वैसे ही रहे तो निरर्थक है।

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