पुज्य जयतिलक जी मरासा ने प्रवचन में बताया कि तपस्या मन वचन काया की आसक्ति, इन्द्रियों को वश में करने के लिए साधन है। मन वचन काया तप से पवित्र बनते है! कषाय को शांत कर चन्द्र के समान शीतल बनाता है। शांति, शीतलता जीव के निज गुण है। तप से आत्मा, शीतल सुखी, मंगलकारी बनती है। अत: जिनेश्वर देव ने अरिहंत, सिद्ध और सिध्द के द्वारा प्रस्तावित धर्म ही जीव को संसार से तिराती है। इन चारों के द्वारा प्ररुपित धर्म तप है। अतः तप का जैन धर्म में बहुत महत्व है। तप से अभिलाषा इच्छा, शांत हो जाती है! एक बार आत्मा कर्म से मुक्त हो जाती है तो फिर से कर्मबंध नहीं करते है। शुभ पुदगल शुभ पुदगल को खींचते है। गंदगी गंदगी को खीचती है।
वैसे ही कर्मों से लिप्त, आत्मा कर्म का खींचती है और कर्मु मुक्त आत्मा पर कर्म खींचने की शक्ति नहीं रहती है अतः मुक्त आत्मा सदाकाल पवित्र रहती है। ऐसी पवित्रता तप से आती है। अनासक्त ही तप कर सकता है। अपने भीतर झाँके अपनी कमियों को जानकर कर उन बंधनो को तोडो। बंधनो को तोड़ने से आत्मा मुक्त हो जाती है।
तपस्या करने के बाद भी यदि “किंचित मात्र भी आसक्ति रह जाये तो भावों से कर्मों का बंधन हो जाता है तप से मन वचन काया हल्की हो जाती है। शारीरिक रोगों को दूर कर देती है। आत्मा को निर्मल बना कर शुद्ध बना देती है! ओली तप प्रारम्भ हो रहा है! अपने रस परित्याग की प्रवृति करना है। तप से अपने जीभ को वश में करो जैसे अंकुश हाथी के वश में हो जाता है वैसे ही तप भी मनुष्य के लिए अंकुश के समान है ! तप से इन्द्रियां कषाय वश में हो जाती है। एक रसना को वश में कर लो तो अनेक पापो से बच जाता है।
तप लौकिक और लोकोतर दोनो होती है। पहले लौकिक लाभ बताकर धर्म से जोड़ा जाता है फिर जीव मोक्ष की कामना से तप किया जाता है! सत्य को मान कर सत्य को अंगीकार कर लौकिक कामना से भी तप करो तो सम्यक्त्व में भंग नहीं होता है। जो जिसके लिए तप करता है उसको वैसा मान कर करे।
प्रवचन के पश्चात श्रीमती पुजा दुगड द्वारा शरीर के सात चक्रों पर ध्वनि के माध्यम से ध्यान का कार्यक्रम कराया गया। जिसमें करीब 40 जन शामिल हुए। ज्ञानचंद कोठारी ने धन्यवाद ज्ञापन किया।