रायपुरम जैन भवन में जयतिलक जी मरासा ने प्रवचन में बताया कि सर्वविरति में आजिवन 18 पापों का तीन करण तीन योग से त्याग। देशविरति में गृहस्थ को दो करण तीन योग से त्याग। श्रावक धर्म का निरूपण किया।
श्रावक: श्र से श्रद्धा, व से विनयपूर्वक, क से कर्मा को तोडना। सामायिक के बिना कर्मो की निर्जरा नहीं होती! तप से भी श्रेष्ठ सामायिक है! तप में 18 पापो का त्याग अनिवार्य नहीं। किंतु सामायिक में 18 पापो का त्याग हो जाता है! केवल तप से कर्म निर्जरा नहीं होती यदि ऐसा होता तो तीर्थकर भगवान को सामायिक चारित्र आवश्यक नहीं होता। आते हुए कर्मो को रोकने सामायिक करनी पड़ती है। अतः तप के साथ सामायिक अनिवार्य है! भगवान ने श्रावक को छः पौषध का उपदेश दिया।
पौषध में तप, प्रतिक्रमण सहज हो जाते हैं। 48 मिनट की सामायिक में भी चारो आहार का त्याग हो जाता है। यदि कोई पलयोपम सागरोपम काल तक मासखमण तप करे तो भी सामायिक का फल उत्कृष्ट है क्योकि उसमें आसव द्वार बन्द नहीं है! वह बलतप है! सामायिक से कर्म निर्जरा का कोई साधन नहीं! सामायिक में भाव भी उत्कृष्ट हो तभी उत्कृष्ट निर्जरा संभव है। द्रव्य सामायिक भाव सामायिक का संकल्प है। सामायिक करने वाला यौध्दा कर्मो से लड़ाई करता है! और जीतने का प्रयास करता है।
पूंजनी, मुहपती उस योद्धा का शस्त्र है। वेश केवल सामायिक की स्मृति के लिए है जैसे प्रसन्चंद्र राजर्षी । भान होने पर पश्चाताप कर आत्म कल्याण कर लिया। अत: सामायिक लेने के बाद सामायिक में रमण करे! समभाव में रहे! सामायिक निष्काम भाव से करो! सब कुछ खोने के लिए सामायिक करो! खोने के बाद भी प्राप्त किया जा सकता है।
सारे अवगुणों को खो दिया तो समभाव स्वयं प्रकट हो जायेगा एकान्त रूप से शांति से अभिलाषा रहित सामायिक शुद्ध करनी चाहिए! सब कुछ छुट गया तो आत्मा बचेगी! समभाव आत्मा का निज गुण है जो उसे छोड़कर कभी नहीं जाएगा! शेष बाहरी गुण जैसे आए है वैसे ही चले जाएगा !
आत्मा का निज गुण है! अनंत ज्ञान अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य! सांसारिक सुख दुःख पाप पुण्य का खेल है। धर्म तो सिर्फ आत्मा को धोने का कार्य करता है। मन वचन काया को साधने का आम साधन सामायिक है! यदि आत्मा में समभाव आ गया तो गृहस्थ भी साधु है मोक्ष जा सकता है :- यदि समभाव है तो शादी हो या शब्द भाव दोनों ही समान है। अतः स्वभाव में समभाव झलकना चाहिए। निजगुण में आने के लिए सामायिक है!