चेन्नई. मंगलवार को श्री एएमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने धर्मसभा को संबोधित किया। धर्मसभा में आचार्य श्री युगप्रभावक श्री जयंतसेन सूरिश्वरजी के शिष्य रत्न मुनि परम पूज्य संयमरत्न विजयजी महाराज एवं श्री भुवनरत्न विजयजी महाराज राजेन्द्र भवन, साहुकारपेट से चातुर्मास स्थल पर उपाध्याय प्रवर के दर्शनार्थ पधारे। तीर्थेशऋषिजी महाराज ने पुच्छीशुणं का पाठ कराया।
उपाध्याय प्रवर ने धर्मसभा में कहा कि पानी को पानी से मिलाना नहीं पड़ता वह स्वत: ही घुल–मिल जाता है लेकिन पत्थरों को कितना ही मिलाएं मिलते नहीं है। पानी के समान अपना जीवन जीएं। संसार में बड़े दो आयुष्य है एक सातवीं नारकी का और दूसरा सर्वाथ सिद्धि विमान के देवता का। दोनों का ही आयुष्य तेतीस सागरोपम का है। साधना शुरू करने में मात्र क्षण भर की दूरी से वे मोक्ष से वंचित हो जाते हैं और देवगति में जाते हैं। एक मिनट के विलम्ब के कारण वे तेतीस सागरोपम का आयुष्य पूर्ण करके पुन: मनुष्य गति में अनेकों कष्ट सहेंगे और फिर साधना कर मोक्ष में जाएंगे।
तंदुलमत्स्य अपनी दुर्भावना के कारण एक मिनट में तेतीस सागरोपम का आयुष्य बांध लेता है। हमारे पास दुर्भावना नहीं, बल्कि समय की कमी है। भवनपति देवताओं का एक श्वास तेतीस पखवाड़े का होता है। सातवीं नारकी का आयुष्य भी उतना ही है लेकिन श्वास छोटा होता है। जितना श्वास गहरा होता है उतना ही संयम, समृद्धि और शांति गहरी होती है। साधना मार्ग पर गहरे श्वास के प्रयोग कराए जाते हैं। तो शरीर का पूरा अनुभूति और क्रिया का तंत्र बदल जाता है।
गलत काम करने में एक मिनट की देरी कर दें तो गलती रूक सकती है और अच्छा काम करने के लिए एक मिनट की भी देरी ना करें क्योंकि क्या पता इससे पहले आयुष्य पूर्ण हो सकता है। दान, धर्म, तप और संयम को कभी भी उधार नहीं रखना चाहिए। जब भी अच्छा काम करने का मन में आए तुरंत कर लें तो शांति की अनुभूति जीवन में होगी।
संयमरत्न विजयजी महाराज ने कहा कि जो सुनने में आनन्द है वह बोलने में नहीं। मौन रहने वाला कभी नहीं फंसता। नमस्कार महामंत्र हमें नमना सीखाता है। नम्र और जो मौन व्यक्ति सबको सुहाता है। भगवान प्रभु महावीर ने साढ़े बारह साल तक साधना मौन रहकर की और उसके बाद अपने अंतिम क्षणों में भी सर्व कल्याण के लिए धर्मदेशना देते रहे। जो नवकार को अपने जीवन में उतार लेता है वह विनम्र हो जाता है। हम जहां कहीं भी जाएं, अरिहंत परमात्मा की शरण लें। प्रभु की शरण ले ली तो कहीं भी नहीं भटकेंगे। यह संसार एक चक्की के समान है और इसमें सभी पिसते जा रहे हैं लेकिन जो चक्की की धुरी के पास रहता है वह साबुत बचा रहता है उसी प्रकार प्रभु महावीर की शरण में शरण में रहनेवाले बचे रहते हैं उनकी दुर्गति नहीं हो सकती, जीवन में कोई भी विघ्न नहीं आ सकते।
गाय जंगल में बहुत दूर चरने जाती है लेकिन उसका पूरा ध्यान अपने बछड़े में ही होता है। उसी प्रकार हमें भी इस संसार में रहते हुए परमात्मा अरिहंत का ध्यान एकाग्रचित होकर रखना चाहिए। अलग–अलग घड़ों में भरा जल अलग अलग लगता है लेकिन घड़े फूटने पर जल जल से मिल जाता है उसी तरह हममें भी इस मिट्टी के शरीर में आत्मारूपी जल भरा है। जब तक घड़ा है तब तक भेद है। उसके बाद आत्मारूपी जल आत्मा में समा जाता है। शरीर अलग–अलग दिखते है। विभिन्न प्रकार के दीपों में एक ही प्रकार की लौ जलती है उसमें भेद नहीं है। भांति–भांति के दीपक की तरह हमारे दृष्टिकोण में ही भेद है। हमारी आत्माओं में कोई भेद नहंी है। नजर से ही नजारे दिखते हैं,अच्छाई में बुराई और बुराई में भी अच्छाई देख सकते हैं। आत्मा–आत्मा में तभी मिलेगी जब कुंभ रूपी घड़ा टूटेगा। हर आदमी अहं से हटेगा तो ही अर्हम बन सकता है। संत भी कितनी ही कठिनाईयां सहन करते हैं तो आपको मिलते हैं। मेहनत से जो मिलता है उसका आनन्द अलग ही होता है। परमात्मारूपी पानी को घड़े के समान स्वयं में आत्मसात करें तो मिट्टी के घड़े के समान ही जीवन शीतल निर्मल और शांत और सुखमय आनन्द हो जाएगा।
संयमरत्न विजयजी महाराज ने कहा किजिस प्रकार सुनार का मन आभूषण बनाते हुए भी सोना निकाल लेता है। उसी प्रकार हम भी कितना ही व्यस्त हो तो भी थेाड़ा समय तो अरिहंत परमात्मा सुमिरन के लिए निकाल ही लेना चाहिए। यह जीव आनन्दघन का स्रोत है, अपने जीवन को आन्न्दमय मय बनाएं। जो समिरन करता है उसे समाधिमरण मिलता है। परमात्मा का स्मरण करते जाएंगे तो उतनी ही साधना गहरी होती जाएगी। सबसे बड़ी दुर्लभ साधना मौन ही है। परमात्मा ने अंतिम देशना इसीलिए दी कि वे मौन रहे थे। बांसुरी के चार गुण जीवन में ग्रहण कर लें तो जीवन सफल व सुरीला हो जाए। बांसुरी बिना बोलें नहीं, जब भी बोलें तो मीठा ही बोलें, अपने हृदय में गांठ न रखें और अपने छिद्रों को ढ़कें नहीं। हमारा जीवन भी बांस के टुकड़े समान है इन गुणों को अपनाकर बांसुरी के समान सुरीला बनें।
उपाध्याय प्रवर ने पधारे हुए संतों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। उन्होंने कहा कि पैदल चलने वाले संतों का मिलन बहुत दुर्लभ होता है। यह तभी होता है जब मन में धर्म और दिल में सरलता होती है। सरल मन और हृदय में ही धर्म टिकता है, उसके लिए जमीन के रास्ते कभी टेढ़े नहीं होते। मुनियों ने उपवास और तपस्या के समय भी पधारे।
गौतमचंद गुगलिया ने मंच पर विराजित सभी संतों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए अपने विचार प्रकट किए। पेरम्बूर, कोडम्बाक्कम,टी.नगर और आरणी से गुरुभक्त उपस्थित रहे। उन्होंने २२ नवम्बर को चौमासी पक्खी के अवसर पर अधिक से अधिक उपवास, तप, पोषध करने का आह्वान किया।