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समाधिमय हो मरण: जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

समाधिमय हो मरण: जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

छोटे, महत्वपूर्ण जीवन को अध्यात्ममय बनाने की दी प्रेरणा

Sagevaani.com @चेन्नई; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में उत्तराध्यन सूत्र के पाँचवे अध्ययन में धर्मपरिषद् को सम्बोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने कहा कि पहले अध्ययन से विनय में रहना सीखा, दूसरे में परिषह- आत्मा को आनंद देने वाले कष्ट चाहे तपस्या हो या अन्य कष्ट उसे सहन करना सीखा, तीसरे अध्ययन में जाना कि मेरे पास जो है, वह गौरवशाली है। स्व के कारण प्राप्त वह गौरव है, पर से प्राप्त अहंकार है। जीवन का कोई भरोसा नहीं अतः परमात्मा वाणी पर श्रद्धा से आचरण करें। चौथे अध्ययन से हमने सीखा कि लाल बत्ती की तरह रुक कर, चिन्तन पूर्वक आगे बढ़ना सीखा। संसार के कामों में दिन बहुत छोटा लगता है और वहीं धर्म में, सामायिक करते समय लम्बा लगता है। वास्तव में यह छोटा सा जीवन है, पल का भी भरोसा नहीं है, इस समय का धर्म के काम में उपयोग करना। लाल बत्ती के बाद मिलने वाली हरी बत्ती लाभकारी होती है।

◆ हमारी कल्पना, हमारे मानसिक भाव उन्नत हो

गुरुवर ने कहा कि पाँचवे अध्ययन में बताया गया कि मरण दो प्रकार का है- अकाम मरण -सकाम मरण, समाधी मरण-  संक्लेश मरण, एक मरण है हंसते हंसते और दूसरा मरण है रोते रोते। मरण अवश्य है लेकिन मृत्यु कैसी होगी, यह हमारा जीवन तय करेगा। मृत्यु के समय में हमारा मन, हमारे विचार कैसे होगे, यह.हमारा वर्तमान तय करेगा। हमारी कल्पना, हमारे मानसिक भाव उन्नत हो। कभी कभी रोते रोते भी समाधी मरण होता है और हंसते हंसते संक्लेश मरण- कारण अलग अलग है। कोई भी व्यक्ति संंसार से संतुष्ट नहीं होता, लेकिन दिखावा जरूर करता है। हमारी प्रार्थना समाधी के लिए हो। अन्तिम समय में भी जब धर्म में रमण करता हुआ, लक्षित धार्मिक कार्यों को पूर्ण नहीं करने के कारण रोता रोता हुआ मरण को प्राप्त करता है, वह समाधी मरण है।

◆ प्रवृत्ति से निवृत्ति खण्ड महत्वपूर्ण

गुरु भगवंत ने कहा कि जीवन के तीन भाग है- प्रवृत्ति खण्ड, निवृत्ति खण्ड और अशक्ति खण्ड। प्रवृत्ति यानी जो भी हम क्रिया करते है चाहे सामायिक, स्वाध्याय, प्रवचन श्रवण ये सभी प्रवृत्ति के अन्तर्गत आती है। दो प्रवृत्तियों के मध्य का काल निवृत्ति खण्ड। मन विचार बहुत करता है, लेकिन शरीर में कोई शक्ति नहीं बची, कार्य नहीं कर पाता, वह है अशक्ति काल। इन तीनों में महत्वपूर्ण है- निवृत्ति काल। प्रवृत्ति इच्छा या अनिच्छा हर समय होती रहती है। निवृत्ति काल अपनी साधना से होता है, जानकारी से होता है, यही काल निर्धारण करता है कि मेरा जीवन समाधि मरण होगा या संक्लेश मरण।

समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती

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