चेन्नई. सोमवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल सेंटर, पुरुषावाक्कम, चेन्नई में चातुर्मासार्थ विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि महाराज एवं तीर्थेशऋषि महाराज के प्रवचन का कार्यक्रम आयोजित किया गया। उपाध्याय प्रवर ने जैनोलोजी प्रैक्टिकल लाइफ में अन्तराय कर्म तोडऩे के सूत्र बताते हुए कहा कि किसी के रास्ते की बाधा न बनें। जब किसी के कार्य में बाधा पहुंचाते हैं तो हमारा अंतराय कर्म का बंध होता है। इस तोडऩे के सूत्र- पहला ज्ञानावरणीय- दु:ख में भी सुख मानना, दूसरा श्रद्धा- जिस पर आपकी श्रद्धा है उनसे मिलकर प्रसन्न होना, तीसरा क्रिया- जो भी कार्य करते हैं उसे प्रसन्न होकर करेंगे तो आपकी शक्ति दिनोंदिन बढ़ती जाएगी, किसी को तकलीफ में देखकर खुश न होना और किसी की प्रगति से ईष्र्या न करना।
सिद्धि की साधना का यही सूत्र है कि हम सभी की साधना सिद्ध हो। कोई भी इससे वंचित न हो। सभी के साथ ही आप सिद्ध हो सकते हैं यही सूत्र है अंतराय कर्म तोडऩे का। दूसरों की सफलता से प्रसन्न होंगे तो आप स्वयं की सफलता के द्वार भी खोल देते हैं, उनकी सकारात्मक ऊर्जा आपको भी प्राप्त होती है।
संसार के अध्याय में बताया कि यदि हम स्वयं भी दु:खी रहेंगे और दूसरों को भी कष्ट पहुंचाएंगे तो असातावेदनीय कर्म का बंध होगा और यदि हम स्वयं खुश रहकर दूसरों को भी प्रसन्न करेंगे तो सातावेदनीय कर्म का बंध हो जाएगा। सुख के स्रोत से सुख और दु:ख के स्रोत से दु:ख उपजेगा। हम क्या कर रहे हैं यह महत्वपूर्ण नहीं बल्कि हम क्रिया में कैसी भावना भा रहे हैं यह आपके साता और असाता कर्म का बंध निर्धारित करता है। यह महसूस करें कि जिस प्रकार सुख और दु:ख हमें प्रिय और अप्रिय लगता है वैसे ही संसार के अन्य जीवों को भी लगता है। स्वयं के सुख के लिए अन्य जीवों को कष्ट देना बंद करें।
अच्छे कर्म करते हुए भी व्यक्ति का ध्यान भटकता रहता है, वह धर्मकार्य में भी बुरे विचारों से ग्रसित रहता है। अच्छे कर्मों को करते हुए तो अच्छे भाव रखें तो कई प्रकार के असातावेदनीय कर्म बंधों से बच जाएंगे।
जैन धर्म में बताया गया है कि पाप करना मुश्किल है और पुण्य आसान। जबकि संसारी जीवों को इसके विपरीत लगता है। वे अच्छा ऊर्जा और मेहनत लगने वाले मुश्किल कार्यों को तो करने को तत्पर हो जाते हैं लेकिन आसान से आसान पुण्य कर्मों को करने की भावना भाते हुए भी थकते हैं। परनिन्दा जैसे कार्य बड़ी आसानी से करते हुए अपनी ऊर्जा को नष्ट करते हैं।
आचारांग सूत्र में विषय का अद्भुत मूलरूप बताया गया है कि मोहवश व्यक्ति कष्टों में भी सुख मानता रहता है। माया, मान, मोह, और विषयों के कष्टों को तत्पर रहता है। इतना कष्ट यदि धर्म के लिए ही कर लें तो मोक्ष प्राप्त हो जाएगा। संसार के कष्ट सहोगे तो संसार बढ़ेगा और संयम, धर्माराधना के लिए करोगे तो धर्म बढ़ता जाएगा। मोह और संसार का सुख केवल मानसिकता का सुख है। आचार्य मानतुंग कहते हैं कि हमें स्वयं की मानसिकता बदलने की आवश्यकता है, इस दुनिया को तो न हम पहले कभी बदल सकते थे और न बदल पाएंगे, लेकिन अपने स्वयं के अन्तर को हम कल, आज और कल भी बदल सकते हैं। यह शरीर तो मात्र पोषण ग्रहण करता है, पोषण देता नहीं है। एक समय होता है जब यह भी साथ देना छोड़ देता है, उस समय केवल आत्मा का साथ ही मिलता है।
जो अपना अधिकार छोड़े बिना आयुष्य पूर्ण करता है, उसकी संपत्ति के द्वारा होने वाले पापों का फल उसे भी भोगना पड़ता है। अपने जाने के बाद भी पाप होता रहे ऐसा बंधन अपने जीवन में न करें। क्योंकि पाप के दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं और पुण्य के दरवाजे को खोलना पड़ता है। पाप की यदि शुरुआत हो जाए तो वह बढ़ता ही रहता है और पुण्य एक बार करने के बाद उसे छोड़ नहीं दें बल्कि पुण्य कर्म सदैव करते रहना ही चाहिए। जिस प्रकार अंधकार बिना बुलाए आ जाता है और उसे दूर करने के लिए दीपक की ज्योति जलानी पड़ती है, लेकिन दीपक बंद होने पर अंधेरा स्वत: फैल जाता है और उजाला करना पड़ता है। जो आपने किया वही आपके साथ चलेगा। इसलिए अपने अधिकारों को अंतिम समय से पहले छोड़ें और पाप से बचें।
परमात्मा कहते हैं कि यह भवि जीवों की आसक्ति है कि वे अपना अधिकार और मोह को छोड़ नहीं पाते और दु:खों को ही सुख मानते रहते हैं।
श्रेणिक चारित्र में बताया कि राजा श्रेणिक देवता से प्राप्त कुंडल नन्दा को और मिट्टी का गोला चेलना को देता है। नन्दा प्रसन्न होती है और चेलना ईष्र्यावश मिट्टी के गोले को फेंकती है और उसमें से सुन्दर हार निकलने पर दोनों रानियों के पास वस्तुएं तो वही हैं लेकिन ईष्यावश भावनाएं बदल जाती है। चेलना को स्वप्न में सिंह उसके शरीर में प्रवेश करता है। गर्भवती होने के बाद चेलना के मन में श्रेणिक का कलेजा भक्षण की तीव्र भावना आती है। श्रेणिक राजा उसे रानी की चिंता का कारण पूछकर उसे आश्वस्त करता है।
तीर्थेशऋषि महाराज ने बताया कि हमेशा सद्भावनाएं रखें, अपना मन और क्रिया समान रखें। मन और क्रिया समान होना चाहिए, नहीं तो जीव की दुर्गति हो तिर्यंच गति में जाते हैं। हमेशा मन और भावों सहित शुद्ध आचरण करें, परमात्मा जैसा बनने की चेष्टा करें।
कार्यक्रम में डॉ.बिपिनभाई देसाई जो बंबई युनिवर्सिटी में लगभग 400 डॉक्टर्स, इंजीनियर, वकील आदि को जैनोलोजी का प्रशिक्षण दे रहे हैं शामिल हुए। अब तक लगभग 5,000 विद्यार्थियों को जैन धर्म के विज्ञान से जोड़ चुके हंै। चातुर्मास समिति द्वारा डॉ.बिपिनभाई देसाई का स्वागत किया गया।
जयपुर से पधारे राजस्थान पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी ने उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि महाराज से सुख-शाता पूछते हुए उनका आशीर्वाद ग्रहण किया। चातुर्मास समिति के सदस्यों द्वारा शॉल और स्मृति चिन्ह द्वारा उनका बहुमान किया गया।
26 से 28 सितंबर को 72 घंटे का अर्हम गर्भ संस्कार शिविर, 30 सितंबर को घर-घर में नवकार कलश स्थापना का कार्यक्रम संपन्न होगा।