चेन्नई. जब-जब जन्म होता है, तब-तब मृत्यु भी अवश्य होती है। जब- जब मृत्यु होती है, तब-तब पुन: जन्म होता है। इस जन्म-मरण-पुनर्जन्म का कारण क्या है? शास्त्रकार बताते हैं इसका कारण है- कर्म । जैसे कर्म होते हैं, वैसा ही जन्म प्राप्त होता है। यह विचार डॉ. वरुण मुनि ने जैन भवन साहुकारपेट में चल रही चातुर्मासिक प्रवचन श्रृंखला में व्यक्त किए। उन्होंने कहा मृत्यु के बाद जन्म हो, यह आवश्यक नहीं, परंतु जन्म के बाद मृत्यु होना निश्चित है। गीता में भी श्री कृष्ण वासुदेव फरमाते हैं कि जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु हे अर्जुन ! जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। जो फूल खिला है वह मुरझाता भी है, जिस भवन का निर्माण हुआ है, वह एक दिन विनाश को भी अवश्य ही प्राप्त होता है। विषय को स्पष्ट करने हेतु गुरुदेव ने कहा पेड़ पर नए-नए पत्ते आए। उन्होंने पुराने पत्तों को देखा तो मजाक उड़ाने लगे- अरे ! ये भी कोई जीवन है? न रंग, न रूप न रस और न ही कोई सौंदर्य? देखो हमारी ओर कैसे कोमल हैं हम कितना सौंदर्य भरा है सहज ही हमारे भीतर। पुराने पत्तों ने उनकी इस टिप्पणी को सुना, कहने लगे- सुनो ‘नए पत्तो ! जैसे आज तुम हो, वैसे कभी हम भी सुंदर थे। जन्म से ही हम सूखे हुए या पीले नहीं थे। हम भी सबका मन लुभाते थे। बचपन पार कर हमने जवानी का दौर भी देखा। हम जवानी में ऐसे मस्त बने हवा के साथ झूलते थे कि बस पूछो मत। फिर धीरे धीरे बुढ़ापा आ गया। हम सूख गए, पीले पड़ गए। अब इससे आगे भी सुनो कुछ देर में हवा का झोंका आएगा और हम पेड़ से टूट कर जमीन पूर जा गिरेंगे ये है जीवन की सच्चाई, जिस पर इंसान इतना अभिमान करता है।
यह दृष्टांत श्री अनु योग द्वार सूत्र में प्रभु महावीर ने हम सब जीवों को समझाने के लिए दिया है। समय रहते जो जीवन का सदुपयोग कर लेते हैं उन्हें फिर पश्चाताप नहीं करना पड़ता। श्रीसंघ के उपाध्यक्ष सुरेश कोठारी एवं मंत्री महीपाल चोरडिय़ा ने बताया कि 21 अगस्त को गुरु मिश्री रूप रजत जन्म जयंति महोत्सव पर ग्रिटिंग कार्ड प्रतियोगिता के परिणाम भी घोषित किए जाएंगे।