पुण्य और पाप कर्म दोनों ही बांधते है। एक लोहे की जंजीर है तो एक सोने की। लोहे की जंजीर से छुटकारा पाने का मन भी करता है। लेकिन अगर जंजीर सोने की हो, तो छूटने का मन नहीं करेगा।
पाप कर्म बंधन है तो पुण्यकर्म भी बंधन है। उपरोक्त बातें आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन जैन संघ में प्रवचन देते हुए कही। उन्होंने आगे कहा कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं होता है। समय के साथ हर वस्तु बदलती रहती है तो उसके साथ मनुष्य के विचार और कार्य भी। हर इंसान की इच्छा होती है है कि उसके जीवन में सुख-शांति और आनंद स्थायी रहे, लेकिन ऐसा होता नहीं है। अगर ये चीज़ स्थायी चाहिए तो जीवन में कुछ बदलाव करने पड़ेंगे,
जब आप सुख में होते हो तो इसमें एक इच्छा होती है। फिर मन करता है कि अब यह परिस्थिति बनी रहे। हमेशा सुख बना रहे। यह कामना जब मन में उत्पन्न होती है तो हम भूल जाते हैं कि परिस्थिति परिवर्तनशील होती है।
कोई भी परिस्थिति कायम नहीं रहती। कभी राजा, कभी रंक, कभी बहुत कुछ, कभी कुछ भी नहीं। समय बदलता रहता है। बदलाव समय का स्वरूप है। इक्कीस साल पहले हमारा जो शरीर था, वह आज नहीं है। समय का चक्र चलता ही रहता है। हमारी दृष्टि में वर्तमान, भूत, भविष्य काल ऐसे भेद हो सकते हैं। समय अपने आप में न भूत है, न वर्तमान है, न भविष्य है। सब कुछ समय के भीतर हो रहा है, और समय में सब बदल रहा है। लेकिन समय नहीं बदलता। वह अव्यय, अखंड है। हर सांस के साथ जीवन नष्ट होता जा रहा है।
अंत में आचार्य श्री ने कहा कि मनुष्य के जीवन में तीन बातें है। शोक, मोह और भय। शोक इसलिए कि आनंद नहीं है। मोह इसलिए कि सुख नहीं है, और भय इसलिए कि शांति नहीं है। तुम चाहते हो आनंद, सुख-शांति और ये तीनों स्थायी हों तो शोक, मोह, भय को छोड़ो। परमात्मा के प्रति श्रद्धा हम सभी के हृदय में है पर हमारा अहंकार उन्हें प्रकट नहीं होने देता। अहंकार को त्यागना है क्योंकि मन की ऐसी स्थिति में मनुष्य सोचने लगता है कि सब मेरा है। यह विनाश का मूल है।और मनुष्य को दुर्गति की और ले जाता है।