आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिजी के सुशिष्य मुनि श्री संयमरत्न विजयजी,मुनि श्री भुवनरत्न विजयजी ने प्रवचन देते हुए कहा कि इस कलियुग में हम जितना जाप करते हैं,उतना ही पाप नष्ट होता है।जाप से ही सिद्धियां हाँसिल होती है। माला से जाप करने की अपेक्षा श्वासोंश्वास के साथ जाप करना चाहिए,जिससे हमारा मन भी नहीं भटकता और जाप का अनंतगुना लाभ भी प्राप्त होता है।
जिस प्रकार समस्त मिठाइयों में मिठास समान रूप से पायी जाती है,उसी तरह हमारी साधना का एकमात्र सार है समाधि व प्रसन्नता की प्राप्ति।समस्त आराधना-साधना का लक्ष्य समता की प्राप्ति करना होता है।जहाँ समता होती है,वहाँ विषमता नहीं रहती।
पाप का कारण विषमता ही है।विषमता का त्याग करते है,समता हमारे भीतर प्रकट हो जाती है।जय-पराजय,लाभ-हानि व सुख-दुःख में जो समता भाव को धारण करता है,वह कभी भी पाप में नहीं बंधता।जो दुःख से डरता है,वह उतना ही कठिनाईयों में घिरता चला जाता है।जो सुख में ज्यादा खुशियां मनाता है,वह कष्ट आने पर उतना ही दुःखी होता है।इसलिए सुख आने पर फूले नहीं और दुःख आने पर फूटे नहीं।
यदि हमसे पाप हुआ है तो कष्ट से डरना नहीं चाहिए,उसका डटकर सामना करना चाहिए।अच्छे कर्म करने से सुख की प्राप्ति अवश्य होती है।दुःख में गम न हो और सुख में गुमान न हो तो समझना हमें समता-समाधि भाव की प्राप्ति हो रही है।लाभ और हानि दोनों परिस्थिति में सम रहने का अभ्यास हो जाने पर हमें हानि में न दुःख होगा और न ही लाभ में ज्यादा खुशी होगी।
आध्यात्मिक साधना का सार राग-द्वेष से मुक्त होना ही है।जहां प्रतिस्पर्धा और प्रलोभन होता है वहाँ कभी भी धर्म प्रभावना नहीं होती।मुनिद्वय श्री के विजयवाडा पधारने पर श्री संभवनाथ राजेन्द्रसूरि जैन श्वेताम्बर संघ के तत्वावधान में राज राजेन्द्र भवन में संगीत कला सिखाने हेतु संगीत शिक्षा का शुभारंभ हुआ।