चेन्नई. रविवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का उत्तराध्ययन सूत्र वाचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने कहा कि श्रुत देवता जिनेश्वर परमात्मा द्वारा प्रदत्त होते हैं। सभी देवी-देवता अपना-अपना आयुष्य लेकर चलते हैं, लेकिन श्रुतदेव परमात्मा के तीर्थंकर नामकर्म के पुण्य से उत्पन्न हैं। इनके साथ तीर्थंकर की आराधना करने वाला साधना के शिखर को छूता ही है।
रथरूपी जीवन के दो पहिए श्रद्धा और संयम है और जो परमात्मा के बताए मार्ग से अलग शॉर्टकट रास्तों पर चलता है वह अपनी श्रद्धा और संयम को खो बैठता है। उसकी भावना होने पर भी वह साधना मार्ग पर आगे बढ़ नहीं पाता और बाद में इन्हें याद कर दु:खी होता है। क्षण मात्र के सुख के लिए अपनी आत्मा गंवाने वाले के लिए वस्तुएं और सत्ता, संपदा काम नहीं आती है।
जिसने मकान में रहते हुए नया मकान नहीं बनाया, उसे पुराने मकान को छोडऩे में तकलीफ होती है और इसे छोडऩे के बाद दर-दर की ठोकरें मिलती है। लेकिन जिसने मकान में रहते हुए महल तैयार कर लिया वह तो पुराने मकान को खुशी-खुशी छोड़ देता है। इसी प्रकार जिसने मृत्यु की तैयारी नहीं की, वही मृत्यु से डरता है, उसे नरक में जाना ही पड़ेगा। जिनके जीवन में श्रद्ध, संयम पर हमला न हुआ हो तो वे अंतिम समय में भी प्रसन्न रहते हैं।
पुण्यशाली को ही समाधि मरण मिलता है। जिसका जीवन पाप में बिता हुआ हो उसे अंतिम समय में शांति और संलेखना नहीं हो पाती। परमात्मा कहते हैं कि ऐसा गृहस्थ भी हो सकता है और साधु भी। अन्दर नफरत रखकर कितना ही चर्या पालन करें, उन्हें समाधि नहीं मिलती। जो लोक प्रतिष्ठा के लिए संयम न छोड़े वही शिखर की यात्रा में समर्थ है। सामायिक कर अपनी आत्मा को जगाएं, संसार से अलग होकर कुछ पल बिताएं, पोषध करें। चिंतन करें कि मेरे रहने न रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता। उस समय व्यक्ति संसार से विरक्त हो अपनी आत्मा का पोषण करते हुए शुभ कर्मों से जुड़ता है।
पौराणिक काल में संलेखना की विधि धर्म की लगभग सभी परम्पराओं में विद्यमान थी लेकिन वर्तमान में यह केवल जैन धर्म में ही बची है। हमारा उत्तरदायित्व है कि अंतिम समय में मृत्यु को स्वीकार करने की इस साधना पद्धति को विश्व को प्रदान करें, इस विद्या को ऐसे जीएं कि अंतिम समय में हर जीव को शांति, समाधि प्राप्त हो। जिसे अंतिम समय में संलेखना करवाने वाला कैप्टन मिल जाए उसकी नैया को मंजिल मिलती है।
सत्य की खोज स्वयं करनी चाहिए। जो सत्य खोजता है वह सत्य का वैज्ञानिक कहलाता है। सत्य खोजने की राह में आपको अमृत भी मिलेगा और जहर भी। उस समय मैत्री भाव न रहा तो वह जहर तुम्हें और दुनिया को बर्बाद कर देगा। सत्य खोजते समय आत्मा का अनन्त सामथ्र्य प्रकट होगा। मन, वचन और काया की शक्तियां मिलेगी, जिनका सदुपयोग मैत्री भाव से ही संभव होगा। गौशालक को परमात्मा ने तेजो और शील लेश्या दोनों ही प्रदान की थी, जिनका उसने मैत्री भाव के अभाव में दुरुपयोग किया और नरक के रास्ते पर चला। सुदर्शन ने बिना अपराध के सजा मिलने पर भी अपना मैत्री भाव नहीं छोड़ा जिससे शूली भी सिंहासन बन गई। साधना के मार्ग पर मैत्री भाव जरूरी है, वही कल्याण और सौभाग्य को प्राप्त करता है। सुखों में तो रिश्ते-नाते सभी हैं, ये साधना में सहयोग कर सकते हैं, लेकिन मृत्यु से बचाने कोई काम नहीं आता है। अपनी संपत्ति का उपयोग करें लेििकन अधिकार न जताएं। सभी जीवों को अपना जीवन प्रिय है, किसी पर भी हमला न करें, भय और दुश्मनी से सदैव बचें।
धर्म को जानना ही पर्याप्त नहीं है, क्रिया भी जरूरी है। शब्दों से ही आत्मा का कल्याण होनेवाला नहीं है, उसका आचरण भी जरूरी है। नहीं तो मन, वचन और काया में आसक्त हो पाप और दु:खों में उलझते हैं। संयम प्राप्त होने पर उसे बनाए रखने वाले इस शरीर का संपत्ति की तरह उपयोग करते हैं, अपने पुराने कर्मों का क्षय और नव-पुण्य अर्जन में सदुपयोग करते हुए प्रमादी व्यक्तियों से सीख लेकर पुराना कर्ज उतारता जाता है। आज के समय में उपकारी को भी कष्ट दिया जाता है, रिश्तों पर भी छुरी चल जाती है, लोग अपने स्वार्थ के लिए किसी को सुविधा और सुख देते हैं। जब आपकी योग्यता के बिना सुविधा प्राप्त होने लगे तो सचेत हो जाएं कि आपका दुरुपयोग भी वे ही करनेवाले है। परमात्मा कहते हैं कि सुविधा के गुलाम मत बनो।
केवल वर्तमान को ही देखनेवाले अपना भविष्य अंधकारमय कर लेते हैं। कुछ पल के सुखों के लिए अन्तर की समाधि को नष्ट कर नरक जाने को तैयार हो जाते हैं। इसे समझने वाला अपने जीवन को संभालता है। जिनके प्रति तुम्हारी आसक्ति हो जाएगी वही तुम्हारे लिए जहर बन जाएगा।
जीवन में संस्कारों को कभी न छोड़ें, कभी भी अपथ्य, कुपथ्य और मिथ्यात्व नहीं स्वीकारें, व्यसनमुक्त जीवन जीएं। यह जहर है, इसे जानें। जो जानते-समझते हुए भी न सुधरे वह मूढ़ है। मूर्ख को जगा सकते हैं मूढ़ को तो परमात्मा भी नहीं जगा सके। अपने पुण्य कर्मों को सुरक्षित रखते हुए और ज्यादा पुण्य अर्जित करें। इन्हें गंवा दिया तो पता नहीं किस नरक में जाना पड़ेगा। संचित पुण्यों की पूंजी को गंवाएं नहीं उसे बढ़ाएं। इच्छाओं और वासनाओं को नियंत्रण में नहीं रख पानेवाला स्वयं का अपराधि है। जो स्वयं का अपराध नहीं कर पाता वह दूसरों का भी अपराध नहीं करता। ज्ञानी को देखकर ज्ञान सीखें, अज्ञानी को देखकर अज्ञान छोड़ें।
निरंतर स्वयं का मूल्यांकन करते रहें। श्रद्धा और संयम से जुड़े रिश्ते जन्म-जन्मांतर संभालते हैं और सत्ता-संपत्ति से जुड़े रिश्ते सदैव दु:ख और कष्ट देते हैं। गलत रास्तों पर चलते हुए भी गलती न हो तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझें। समझदारों को सजा भी अक्ल दे जाती है।
रथरूपी जीवन के दो पहिए श्रद्धा और संयम है और जो परमात्मा के बताए मार्ग से अलग शॉर्टकट रास्तों पर चलता है वह अपनी श्रद्धा और संयम को खो बैठता है। उसकी भावना होने पर भी वह साधना मार्ग पर आगे बढ़ नहीं पाता और बाद में इन्हें याद कर दु:खी होता है। क्षण मात्र के सुख के लिए अपनी आत्मा गंवाने वाले के लिए वस्तुएं और सत्ता, संपदा काम नहीं आती है।
जिसने मकान में रहते हुए नया मकान नहीं बनाया, उसे पुराने मकान को छोडऩे में तकलीफ होती है और इसे छोडऩे के बाद दर-दर की ठोकरें मिलती है। लेकिन जिसने मकान में रहते हुए महल तैयार कर लिया वह तो पुराने मकान को खुशी-खुशी छोड़ देता है। इसी प्रकार जिसने मृत्यु की तैयारी नहीं की, वही मृत्यु से डरता है, उसे नरक में जाना ही पड़ेगा। जिनके जीवन में श्रद्ध, संयम पर हमला न हुआ हो तो वे अंतिम समय में भी प्रसन्न रहते हैं।
पुण्यशाली को ही समाधि मरण मिलता है। जिसका जीवन पाप में बिता हुआ हो उसे अंतिम समय में शांति और संलेखना नहीं हो पाती। परमात्मा कहते हैं कि ऐसा गृहस्थ भी हो सकता है और साधु भी। अन्दर नफरत रखकर कितना ही चर्या पालन करें, उन्हें समाधि नहीं मिलती। जो लोक प्रतिष्ठा के लिए संयम न छोड़े वही शिखर की यात्रा में समर्थ है। सामायिक कर अपनी आत्मा को जगाएं, संसार से अलग होकर कुछ पल बिताएं, पोषध करें। चिंतन करें कि मेरे रहने न रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता। उस समय व्यक्ति संसार से विरक्त हो अपनी आत्मा का पोषण करते हुए शुभ कर्मों से जुड़ता है।
पौराणिक काल में संलेखना की विधि धर्म की लगभग सभी परम्पराओं में विद्यमान थी लेकिन वर्तमान में यह केवल जैन धर्म में ही बची है। हमारा उत्तरदायित्व है कि अंतिम समय में मृत्यु को स्वीकार करने की इस साधना पद्धति को विश्व को प्रदान करें, इस विद्या को ऐसे जीएं कि अंतिम समय में हर जीव को शांति, समाधि प्राप्त हो। जिसे अंतिम समय में संलेखना करवाने वाला कैप्टन मिल जाए उसकी नैया को मंजिल मिलती है।
सत्य की खोज स्वयं करनी चाहिए। जो सत्य खोजता है वह सत्य का वैज्ञानिक कहलाता है। सत्य खोजने की राह में आपको अमृत भी मिलेगा और जहर भी। उस समय मैत्री भाव न रहा तो वह जहर तुम्हें और दुनिया को बर्बाद कर देगा। सत्य खोजते समय आत्मा का अनन्त सामथ्र्य प्रकट होगा। मन, वचन और काया की शक्तियां मिलेगी, जिनका सदुपयोग मैत्री भाव से ही संभव होगा। गौशालक को परमात्मा ने तेजो और शील लेश्या दोनों ही प्रदान की थी, जिनका उसने मैत्री भाव के अभाव में दुरुपयोग किया और नरक के रास्ते पर चला। सुदर्शन ने बिना अपराध के सजा मिलने पर भी अपना मैत्री भाव नहीं छोड़ा जिससे शूली भी सिंहासन बन गई। साधना के मार्ग पर मैत्री भाव जरूरी है, वही कल्याण और सौभाग्य को प्राप्त करता है। सुखों में तो रिश्ते-नाते सभी हैं, ये साधना में सहयोग कर सकते हैं, लेकिन मृत्यु से बचाने कोई काम नहीं आता है। अपनी संपत्ति का उपयोग करें लेििकन अधिकार न जताएं। सभी जीवों को अपना जीवन प्रिय है, किसी पर भी हमला न करें, भय और दुश्मनी से सदैव बचें।
धर्म को जानना ही पर्याप्त नहीं है, क्रिया भी जरूरी है। शब्दों से ही आत्मा का कल्याण होनेवाला नहीं है, उसका आचरण भी जरूरी है। नहीं तो मन, वचन और काया में आसक्त हो पाप और दु:खों में उलझते हैं। संयम प्राप्त होने पर उसे बनाए रखने वाले इस शरीर का संपत्ति की तरह उपयोग करते हैं, अपने पुराने कर्मों का क्षय और नव-पुण्य अर्जन में सदुपयोग करते हुए प्रमादी व्यक्तियों से सीख लेकर पुराना कर्ज उतारता जाता है। आज के समय में उपकारी को भी कष्ट दिया जाता है, रिश्तों पर भी छुरी चल जाती है, लोग अपने स्वार्थ के लिए किसी को सुविधा और सुख देते हैं। जब आपकी योग्यता के बिना सुविधा प्राप्त होने लगे तो सचेत हो जाएं कि आपका दुरुपयोग भी वे ही करनेवाले है। परमात्मा कहते हैं कि सुविधा के गुलाम मत बनो।
केवल वर्तमान को ही देखनेवाले अपना भविष्य अंधकारमय कर लेते हैं। कुछ पल के सुखों के लिए अन्तर की समाधि को नष्ट कर नरक जाने को तैयार हो जाते हैं। इसे समझने वाला अपने जीवन को संभालता है। जिनके प्रति तुम्हारी आसक्ति हो जाएगी वही तुम्हारे लिए जहर बन जाएगा।
जीवन में संस्कारों को कभी न छोड़ें, कभी भी अपथ्य, कुपथ्य और मिथ्यात्व नहीं स्वीकारें, व्यसनमुक्त जीवन जीएं। यह जहर है, इसे जानें। जो जानते-समझते हुए भी न सुधरे वह मूढ़ है। मूर्ख को जगा सकते हैं मूढ़ को तो परमात्मा भी नहीं जगा सके। अपने पुण्य कर्मों को सुरक्षित रखते हुए और ज्यादा पुण्य अर्जित करें। इन्हें गंवा दिया तो पता नहीं किस नरक में जाना पड़ेगा। संचित पुण्यों की पूंजी को गंवाएं नहीं उसे बढ़ाएं। इच्छाओं और वासनाओं को नियंत्रण में नहीं रख पानेवाला स्वयं का अपराधि है। जो स्वयं का अपराध नहीं कर पाता वह दूसरों का भी अपराध नहीं करता। ज्ञानी को देखकर ज्ञान सीखें, अज्ञानी को देखकर अज्ञान छोड़ें।
निरंतर स्वयं का मूल्यांकन करते रहें। श्रद्धा और संयम से जुड़े रिश्ते जन्म-जन्मांतर संभालते हैं और सत्ता-संपत्ति से जुड़े रिश्ते सदैव दु:ख और कष्ट देते हैं। गलत रास्तों पर चलते हुए भी गलती न हो तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझें। समझदारों को सजा भी अक्ल दे जाती है।