किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरीश्वरजी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने प्रवचन में कहा कोई भी दोष का कारण कर्म का उदय तो है ही, यह एक सार्वभौमिक कारण है लेकिन विशेष कारण क्या है, उसकी खोज जरूरी है। वास्तव में हमारे अंदर रही अज्ञानता, सज्जनों की संगति का अभाव और धर्म व्यवहार का अभाव इन दोषों के मुख्य कारण है। उत्सर्ग सामान्य होता है, अपवाद व्यक्तिगत होता है। ज्ञानी कहते हैं दोष का सेवन करना पड़े तो भी विवेक रखना पड़ेगा, इससे अशुभ अनुबंध नहीं होंगे।
आत्मसाक्षी होने पर ही अपवाद का सेवन होना चाहिए। खुद से पढे हुए शास्त्र कदाग्रही बनाते हैं, सुनने से शास्त्र विवेकी बनाते हैं। सुनने के बाद उन्हें पढ़ा जा सकता है। आगम कभी पुस्तक देखकर पढ़ने की चीज नहीं है, गुरु से सुनकर पढ़ने की चीज है। गलत आचरण से भी ज्यादा खतरनाक है लोगों में गलत बातें फैलाना। सज्जन की संगति जीवन में दोषों से बचाती है। दो आदमी जगत में निर्भयता से जीते हैं एक निर्लेपी आत्मा और एक निर्लज्जी आत्मा। उन्होंने कहा भाषा कोई भी हो, भावना महत्वपूर्ण है। ज्ञानी कहते हैं कुछ भी नहीं मिले तो कोई बात नहीं, सज्जनों की संगति अवश्य रहनी चाहिए। अपने पास सम्यक ज्ञान के साथ- साथ सज्जनों की संगति भी होनी चाहिए।
आचार्यश्री ने कहा एक बार जिसकी दुर्जन की छाप पड़ जाती है और वह सज्जनता का काम भी करता है तो भी लोग उस पर विश्वास नहीं करते। सज्जन पुरुष रेगिस्तान में भी फूल खिलाते हैं, अधम पुरुष उपवन में भी कांटे उगाने का काम करते हैं। आपका गुनाह उस समय गुनाह नहीं रहता है, यदि आप स्वीकार कर लेते हो। आपकी श्रद्धा, वह श्रद्धा नहीं रहती है, यदि आप कुतर्क करते रहते हो। गुरु का दर्शन तुरंत अज्ञान का अंधकार मिटाता है।
कोई भी अच्छी शिक्षा लेते हैं तो वह अनुभवी के पास पढ़कर ही लेनी चाहिए। व्यक्ति को परिस्थितियों का आकलन करना नहीं आता, इससे ज्यादा अज्ञानता उसमें क्या होगी। उन्होंने बताया ग्रह चार होते हैं कदाग्रह, हठाग्रह दुराग्रह और पूर्वाग्रह। सज्जन आदमी भी समझाएं तो भी दिमाग में नहीं आए, वह हठाग्रह है। किसी व्यक्ति के प्रति अपने मन में रहा हुआ गलत आग्रह दुराग्रह है। उन्होंने कहा क्रोध एक ऐसा दोष है, जो आता थोड़ी देर के लिए है लेकिन समस्त सुकृतों को नष्ट कर देता है, अपने व्यवहार को जला देता है। क्रोध को आग की उपमा दी गई है। जघन्य भक्ति वह होती है जो शब्दों से भगवान की भक्ति करे और बाहर आकर चिंता, आरोप में लिप्त हो जाए। मध्यम भक्ति यानी भगवान की आज्ञा पर विश्वास। उत्तमोत्तम भक्ति वह है जो गुरु के कहे बिना ही सत्य समझ में आ जाए।