चेन्नई. एएमकेएम में विराजित साध्वी कंचनकुंवर व साध्वी डॉ.सुप्रभा ‘सुधाÓ के सानिध्य में घोर तपस्वी पू.गुणेशीलालजी महाराज की आज 140वीं जयंती सामायिक, तप आदि के साथ मनाई गई। साध्वी डॉ.उदितप्रभा ‘उषाÓ ने कहा कि जीवन संस्कारों से सजता और संवरता है।
संस्कारों की गहरी नींव पर ही जीवनरूपी ईमारत मजबूती से खड़ी रह सकती है। बाल्यावस्था के संस्कारों की अमिट छाप जीवन पर रहती है जो अभिभावकों पर निर्भर करती है। अभिभावकों की बोल-चाल, रहन-सहन, कार्यकलाप बच्चों को प्रभावित करते हैं।
यदि चाहते हैं कि हमारे बच्चे महापुरुष बनें तो स्वयं उनके जैसा जीवन जीएं, उनमें स्वत: ही संस्कार आ जाएंगे। उनका जन्म बिलाड़ा में वि.सं.1936 को हुआ। माता-पिता बहुत सम्यकत्वधारी, विनयशील और गुणवान थे, बचपन से ही उनके संस्कारों का ध्यान रखा गया जिनका प्रभाव उनके जीवन में दृष्टिगोचर होता है। पौधे को पानी के साथ खाद, हवा, प्रकाश चाहिए वैसे ही बच्चों को लाड़-प्यार के साथ शिक्षा, सभ्यता और संस्कार चाहिए।
छह वर्ष की उम्र में ही माता-पिता का देहांत और बाद में छोटा भाई का देहांत हो गया। काल की सहनशील व्यक्ति की परीक्षाएं बार-बार लेता है, कई जगहों पर कार्य करते हुए उन्होंने अपने स्वाभिमान के कारण उन्हें छोड़ दिया। चिंतन करते-करते संसार की नश्वरता जान उनके मन में वैराग्य भाव आए और उन्होंने अपने विवाह के मुहूर्त को दीक्षा में बदलना निश्चय किया। वि.सं.1970 मंगसर सुदी 9को पू.तपस्वी प्रेमराज महाराज से उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। जीवन में अनेकों प्रकार की कठोरतम तपस्याएं करते हुए वचनसिद्ध और अनेकों सिद्धियों-लब्धियों के स्वामी बने। उनके जीवन में úशांति का जाप, मुखवस्त्रिका और खद्दर वस्त्र श्रद्धालुओं के लिए भी अनिवार्य रहा।
उनके उद्बोधनों से गौशालाओं का निर्माण और पशुओं की हत्या पर रोक लगी। वे मिथ्यात्व के कट्टर विरोधी थे। वे कहते थे कि पाप-पुण्य से ही सुख-दुख मिलता है, कोई किसी को सुखी-दुखी नहीं कर सकता। जो भी उनके सानिध्य में गया, आरोग्य प्राप्ति और भौतिक बाधाओं से मुक्त हुआ। आज भी उनका नामस्मरण मात्र से कार्य सुसंपन्न होते हैं। जो साधना मार्ग पर आगे बढ़ते हैं उनमें सिद्धियां स्वत: ही आ जाती है। ऐसे तपस्वीराज की जयंती हम भी उनके गुणों को अपनाएं और उनकी तरह दृढ़ सम्यकत्वधारी बनें।
साध्वी डॉ.इमितप्रभा ने समकित के ६७बोल में तीसरा विनय गुण बताते हुए कहा कि आगम में धर्म का मूल विनय कहा है। साधना मार्ग पर जाना है तो विनय धारण करें। प्रभु ने अंतिम वागरना में पहला अध्ययन विनय कहा है। उपजाऊ भूमि के जैसे इस गुण में मोक्षरूपी फल हो सकते हैं।
नवकार महामंत्र में पहला शब्द नमो है और बड़ी साधु वंदना में भी नमस्कार को महत्व दिया है। कभी-कभी विनय स्वार्थमूलक भी हो सकता है। इसके पांच प्रकार हैं- लौकिक व्यवहार, अर्थविनय, काम विनय, भय विनय, कल्याण विनय। प्रथम चार विनय भौतिक स्वार्थ और वासनापूर्ति के हैं लेकिन अंतिम कल्याण विनय आध्यात्मिक है, आत्मा से महात्मा और महात्मा से परमात्मा बनाता है।
झुकना है तो सुदेव, सुगुरु और सुधर्म के आगे झुकें। विनयशील पात्रता और सहज आशीर्वाद को प्राप्त कर लेता है। माता-पिता, गुरु, परमात्मा की आज्ञा शीरोधार्य कर उनके प्रति मन, वचन, काया से पूर्ण समर्पण हो तो स्वत: ही आशीर्वाद मिलेगा। उनकी आज्ञानुसार हम कर्म, साधना और क्रिया करें तो तीर्थंकर प्रभु का आशीर्वाद और उनकी शक्ति प्राप्त हो। महापुरुषों की सभी क्रियाएं विनय में होती है। विनय के साथ प्राप्त किया गया ज्ञान जल में तेल की बंूद की तरह विस्तृत होकर आत्मा का कल्याण होता है।
पू.गणेशीलालजी महाराज एक बहुत बड़े डॉक्टर थेे। जो भी उनके पास आधि-व्याधि से ग्रसित आता उसे तेल, अठाई की तपस्याएं आदि के द्वारा स्वस्थ कर देते थे। तपस्वीराज की कथनी और करनी समान थी, साधना में बल था। वे मिथ्यात्व के घोर विरोधी और वितरागधर्म पर पूर्ण श्रद्धा थी। उनके जैसी साधना का बल हममें भी आए इसके लिए उन महापुरुषों का जीवन में अनुशरण करें।
धर्मसभा में अनेकों स्थानों से श्रद्धालु उपस्थित रहे। दोपहर में हाउजी प्रतियोगिता हुई। श्री मधुकर उमराव अर्चना चातुर्मास समिति के मंत्री शांतिलाल सिंघवी ने पू.गणेशीलालजी महाराज को अपने श्रद्धसुमन अर्पित करते हुए उनके साथ अपने अनुभव बताए और सम्यकत्व अपनाने की प्रेरणा दी।
उत्तराध्ययन सूत्र प्रतियोगिता में जीया चोरडिय़ा और प्रणव सुराणा को पुरस्कृत किया गया। उत्तर दिशा में सात लोगस्स की सामूहिक साधना करवाई गई। धर्मसभा में चातुर्मास समिति के पदाधिकारियों सहित अनेकों श्रद्धालु उपस्थित रहे। ३ नवम्बर को उड़ान टीम द्वारा पुच्छीशुणं प्रतियोगिता का पुरस्कार वितरण होगा तथा रोल द कर्मा के स्टाल लगाए जाएंगे।