तिंडीवणम. यहां चातुर्मासार्थ विराजित जयतिलक मुनि लघु ने कहा संसार में रहने वाली हर वस्तु अनित्य है कोई वस्तु शाश्वत नहीं है। शरीर भी शाश्वत नहीं है। एक दिन छूट जाने वाला है।
संसारी को अपने शरीर से बहुत लगाव है इसलिए अपने शरीर को दर्पण में जाकर निहारते हैं। शरीर में थोड़ी सी कमजोरी आ गई तो चिंता करते हैं। ज्ञानीजन कहते हैं इसे कितना भी खिला दो नष्ट होकर रहेगा। चातुर्मास में चतुर पुरुष रहते हैं। चतुर पुरुष मौके का फायदा उठाते हैं।
चतुर पुरुष वह होता है जो मनुष्य शरीर मिला है, उसका सदुपयोग कर ले। इस शरीर का कितना भी ध्यान रख लो, अच्छे से अच्छा खिला दो यह शरीर कमजोर होगा ही। जिस लक्ष्य को पाने के लिए यह मनुष्य शरीर मिला है उस लक्ष्य को पाने के लिए अग्रसर होना चाहिए। कितनी भी इच्छाओं की पूर्ति कर लो, वे शांत होने वाली नहीं हैं। इच्छाओं को शांत करने के लिए उनका दमन करना ही श्रेयस्कर है।
तप से इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। आसक्ति नहीं तो कर्म बंध नहीं होगा। भरत चक्रवर्ती को इतने भोग में रहते हुए भी आसक्ति नहीं थी। पुरुषार्थ करने वाला जीव तिरता है। प्रमाद करने वाला जीव डूबता है।
श्रावक और श्राविकाओं को चातुर्मास की जरूरत है। यह चातुर्मास शरीर और आत्मा को सजाने के लिए मिला है। शरीर को तो भव-भव में कितने भवों से सजा लिया लेकिन आत्मा को नहीं सजाया इसलिए संसार में बैठे हैं।
तपस्या के बाद पारणा इसलिए रखा कि शरीर साधन है। मुनि ने हाल ही गाजे-बाजे के साथ चातुर्मासिक प्रवेश किया था।