चेन्नई. प्रश्न किया जिज्ञासु ने – महाराज दु:ख का मूल क्या है गुरुदेव ने फरमाया- दु:ख का मूल कारण है – मोह। जहां- जहां व्यक्ति का मोह जुड़ा होता है वहीं-वहीं उसे दु:ख की प्राप्ति होती है यह विचार ओजस्वी प्रवचनकार डॉ. वरुण मुनि ने जैन भवन में बड़ी संख्या में उपस्थित श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने कहा जैन दर्शन में 8 कर्म माने गए हैं और उनमें मोहनीय कर्म को सेनापति बताया गया है। जैसे आप किसी देश के सेनापति को जीत लें तो पूरी सेना पर ही आपका कंट्रोल हो जाता है। प्राचीन युग में राजा-महाराजाओं के समय में ऐसा ही होता था। इसी प्रकार अगर आप मोह रूपी सेनापति को जीत लें तो बाकी कर्मों की सेना आप स्वत: ही जीत जाएंगे। कल्पना करें – सडक़ पर कार खड़ी है, किसी ने पत्थर मारा, कार का शीशा फूट गया, आप एकदम गुस्से में भरकर चिल्लाने लगे पर जब ध्यान से देखा कार वही है रंग वही है माडल वही है लेकिन नम्बर आपकी गाड़ी का नहीं है।
यानि किसी और की गाड़ी का कांच फूटा तो भला बताईए अब गुस्सा होंगें? चिल्लाएंगें नहीं? क्यूं? क्यूंकि यह मेरी कार नहीं है। आपके मोह का जैसे ही डायमेंशन चेंज हुआ तो पूरी स्थिति ही चेंज हो गई। आदमी सोचता है मेरा मकान मेरी दुकान, मेरा पैसा मेरी गाड़ी मेरा बंगला क्या जन्म के समय साथ लाए थे क्या मृत्यु के समय साथ ले जाएंगे? तो क्या मेरा- मेरा किए जा रहे हैं?
ज्ञानीजन कहते हैं- संसार में रहों पर मालिक बन कर नहीं मेहमान बन कर जीओ। आप होटल या धर्मशाला में गए, चार दिन रुके फिर अपने घर लौट आए। ये संसार भी एक धर्मशाला है, सिकंदर जैसे भी आए जो मालिक बनने का दावा करते थे। पर खाली हाथ जाना पड़ा मेहमान बनके जीओगे तो हंसते-हंसते संसार से विदा ले पाओगे पर अगर मालिक बनने में लगे तो रोते-रोते जाना पड़ेगा। प्रवचन सभा में सेलम, उदयपुर, मैसूर, हिसार, पानीपत, आदि क्षेत्रों से भी गुरुभक्त पधारे। रमेश धोका का शॉल-माला द्वारा श्रीसंघ ने सम्मान किया।