पुज्य जयतिलक जी मरासा ने बताया कि मोह, ममता आसक्ति को क्षीण करना श्रावक धर्म है । संसार में रहते हुए जीवन निर्वाह के लिए आरम्भ करना पड़ता है। अत: भगवान ने गृहस्थों को मर्यादित जीवन का उपदेश दिया जिससे धर्म आराधना कर कर्मों को क्षय कर सके। आवश्यक की मर्यादा अनावश्यक के त्याग का उपदेश दिया। संसार में बहुत से पाप बिना प्रयोजन के ही होते है! ऐसे पाप को अनर्थदण्ड बताया। जैसे व्यक्ति खड़े खडे छोटी पतीयों को तोड़ना। घास पर बैठ कर घास उखाड़ देता है। उस वनस्पति को तो वेदना हो रही है किंतु वह अनर्थ का पाप कर्म कर रहा है! जब पैसा खर्च करते समय सोच समझ कर करते है तो वहाँ पर क्यों जीवन का हनन करते है।
एक बार गाँधी जी को नीम की दो पत्ती की आवश्यकता पड़ी किंतु सेवक पुरा गुच्छा तोड़ लाया। गांधी जी को भयंकर वेदना हुई। उन्हें व्रत प्रत्याखान नहीं था किंतु विवेक था। यदि आप अपने बाल नोच कर देखो तो आपको वेदना होती है! वैसे ही उन जीवो को भी वेदना होती है। एक बार गाँधीजी ने कुल्ला करने पानी मंगाया तो घड़ा लाकर रख दिया किंतु गाँधी जी ने छोटा लोटा मांग कर उसका उपयोग किया किंतु पानी को व्यर्थ नहीं किया। आज के फैशन के युग में आप पानी पीते हो और आधा गिरा देते हो! पानी में भी असंख्यात जीव है! विवेक को उपयोग करो! बिना प्यास के पानी नहीं पीना चाहिए !
आजकल RO पानी है जो एक गिलास पानी के लिए चार गिलास पानी व्यर्थ जाता है! एक गिलास पानी पिया नही किंतु उसके पीछे सात-आठ गिलास पानी व्यर्थ हो जाता है! जब एक व्यक्ती एक बार में इतना एक पानी व्यर्थ करता है तो दिन भर में कितना करता है। ऐसे विश्व में कितना पानी व्यर्थ होता होगा! बिना प्रयोजन के नल नहीं खोलना ! घर के कार्य में भी पानी का व्यवस्थित उपयोग करे! बिना प्रयोजन पानी का उपयोग करने से कर्म बंध होता है! जैन कुल मे जन्मा साधक बिना प्रयोजन का पाप नहीं करता ।
बिना प्रयोजन का भोगना दण्ड पड़ता है इसलिए अनर्थदण्ड कहते है। बिना प्रयोजन के पानी का स्पर्श, मिट्टी खोदना, पत्थर मारना, पत्थर पर पत्थर फेंकना, भील आदि छोटे छोटे कंकर से जीव का धात करता है ! अत: छोटा सा कंकर भी उठा कर फेंका तो छह काय की विराधना होती हैं जहाँ वायुकाय की विराधना है वहाँ छह काय की विराधना होती है।
मजबूरी में सचित का खनन, उपयोग आदि करना पड़े तो पाप है। किंतु आवश्यक है। बिना प्रयोजन फेन लाईट प्रयोग करने से दोष लगता है मनोरंजन आदि पाप है। पुराने जमाने में राजा शिकार करते थे, जुआं खेलते थे! यह सब का पाप अनर्थदण्ड है! बिना प्रयोजन का आप कार्य करते नहीं किंतु त्याग न करने से इन सब पापों का दोष लगता है! ताश, शतंरज आदि खेल में भी अनर्थ होता है! हिंसाकारी खेल नहीं खेलना। अतः जैन साधकों को ऐसे अनर्थ के खेल से बचना चाहिए ।
संचालन ज्ञानचंद कोठारी ने किया। यह जानकारी नमिता स॑चेती ने दी।