इस संसार में दो चीजें मिलती है गुण और अवगुण। अनादिकाल से हमारी यात्रा चल रही है, कोई इस यात्रा में विवेक और सद्गुणों का गुलदस्ता लेकर चलता है, कोई अवगुणों की टोकरी लेकर चलता है । गुणवान व्यक्ति आदरणीय सम्मानीय हो जाता है, स्वर्ण कितने भी समय तक कीचड़ में पड़ा रहे उस पर जंग नही लगती है, सड़ता नही है, और लोहा कुछ ही समय पानी में रह जाए तो सड़ जाता है। सुसज्जित कपड़े पहनने से इत्र परफ्यूम लगाने से, अच्छे अच्छे गहने पहनने से भी किसी अवगुणी व्यक्ति को इज्जत नही मिलती है। संसार में गुण भी मिलते है अवगुण भी मिलते है, हमेशा गुणवान की और त्याग करने वाले की ही जयजयकार होती है।
सामने वाले के दुर्गुणों पर एक उंगली उठाओगे तो आपकी और तीन उंगली होती है, इसलिये दूसरों के दुर्गुण देखने के पहले हमें अपने दुर्गुण को देखकर पहचानकर उन्हें दूर करना चाहिए। महापुरुष सर्वगुण सम्पन्न होते है, साधारण मानव में गुण एंव दुर्गुण दोनों होते है। श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर आचार्य भगवन आँनन्द ऋषि जी मसा गुणों का गुलदस्ता थे। कल उनकी जन्म जयन्ती पर उनका गुणानुवाद करेंगे।
शतावधानी पूज्याश्री गुरु कीर्ति ने मेरे महावीर को जानों विषय को आगे बढाते हुए फरमाया की मरिची ने भले ही साधुपना छोड़ दिया था लेकिन उसने आदिनाथ की भक्ति नही छोड़ी थी । अब भी उसका एक ही लक्ष्य है की उसे तीर्थंकर बनना है। कोई भी उससे पूछता तो सबसे यही कहता की मेरे भीतर आत्मबल नही है इसलिये संयमी जीवन छोड़ दिया लेकिन मैंने अपने आदिनाथ को नही छोड़ा है । अयोध्या नगरी में समोसरण में भरत चक्रवर्ती और सारी जनता है । मरिची समवसरण के बाहर नजरे झुकाकर खड़ा है, वह भगवान के चरणों को स्पर्श नही करता है,उनसे नजरे नही मिलता ।
भगवा वेश में देखकर कोई उसके पास रुककर खड़ा भी हो जाता तो वो नजरें झुकाकर यही कहता की सच्चा धर्म और एकमात्र धर्म आदिनाथ के पास ही है । मरिची के पिता भरत चक्रवर्ती ने भरी सभा में प्रभु से एक सवाल पूछा की आप प्रथम तीर्थंकर है तो क्या आपके बाद और भी कोई तीर्थंकर होंगे, भगवान ने जवाब दिया हां मेरे जैसे 23 तीर्थंकर और होंगे। भरत ने फिर प्रश्न किया क्या इस समवसरण में ऐसी कोई आत्मा है जो तीर्थंकर बनेगी। मरिची ये सब बातें सुन रहा है वो ध्यान से सवाल जवाब सुनता है।
प्रभु ने कहा इस समवसरण में ऐसी कोई आत्मा नही है, भरत ने आश्चर्य से पूछा इस सभा में इतने बड़े बड़े ज्ञानी, त्यागी, उत्कृष्ट संयम का पालन करने वाली आत्माएँ है फिर भी कोई नही, तो आदिनाथ ने फरमाया इस सभा में तो नही लेकिन सभा के बाहर तो तेरा पुत्र मरिची खड़ा है वो आत्मा तीर्थंकर बनेगी। भरत ने कहा उसने आपका दिया हुआ वेश छोड़ दिया फिर भी वो तीर्थंकर बनेगा, प्रभु ने कहा उसका वेश मत देखो उसकी भक्ति देखो। वो तीर्थंकर बनेगा, चक्रवर्ती भी बनेगा, वासुदेव भी बनेगा । सभी आश्चर्य चकित रह जाते है, मरिची बाहर खड़ा खड़ा प्रभु की वाणी सुन रहा है, उसकी आँखों से अश्रु की धारा बह रही है। वो सोचता है मैने प्रभु को छोड़ दिया लेकिन प्रभु ने मुझे नही छोड़ा। सभा समाप्ति के बाद भरत समवसरण के बाहर खडे पुत्र मरिची के पास जाता है, दोनों के बीच क्या वार्तालाप होता है यह आगे सुनने पर पता चलेगा।