वेपेरी स्थित जयवाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा संसार जन्म और मरण का चक्र है। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। जो फूल खिलता है वह एक दिन अवश्य ही मुरझायेगा।
जन्म और मरण का संबंध शरीर से हैं आत्मा तो शाश्वत होती है। आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से नित्य हैं और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य होती है। जीवन एक स्वप्न के समान है।
सपने में आंखें खुलने के बाद कुछ नहीं रहता और मृत्यु में आंखें के बंद होने के बाद कुछ नहीं बचता। जन्म और मरण किताब के प्रथम और अंतिम पृष्ठ के समान है।
जन्म और मरण के बीच का काल जीवन कहलाता है। जिसका जीवन सार्थक होता है उसका जन्म और मरण भी सार्थक बन जाता है। व्यक्ति को हर समय सावधान रहना चाहिए क्योंकि काल का कोई भरोसा नहीं रहता।
मृत्यु बिन बुलाए मेहमान की तरह कभी भी आ सकती है। मुनि ने श्रावक के ग्यारहवें गुण मध्यस्थता के अंतर्गत जन्म और मरण के द्वंद में समभाव रखने की प्रेरणा दी। महापुरुष मृत्यु से कभी घबराते नहीं अपितु सहर्ष मृत्यु का वरण करने के लिए तैयार रहते हैं।
एक श्रावक अपने वचनों को निभाने के खातिर प्राण तक न्योछावर करने के लिए तैयार हो जाता है। हर पल हर क्षण मृत्यु का स्मरण होने से पौदगलिक पदार्थों के प्रति आसक्ति घटती है और समता भाव में वृद्धि होती है।
हर परिस्थिति में संतुलन बनाए रखना ही समत्व की सच्ची साधना है।