चेन्नई. वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा आत्मा के हिताहित का ज्ञान प्राप्त करने के लिए विवेक बुद्धि जाग्रत करनी जरूरी है। गुण और दोष को अलग करने के लिए विवेक रूपी तृतीय नेत्र खोलना होगा।
संसार की किसी भी प्रवृत्ति में यतना के जुड़ जाने से पाप कर्मों का बंध नहीं होता है और पहाड़ जितना पाप मात्र राई जितने रह जाते हैं।
जहां विवेक है वहां धर्म है अन्यथा मनुष्य और पशु में किंचित मात्र भी अंतर नहीं होगा।
कार में जिस प्रकार ब्रेक की अनिवार्यता है उसी प्रकार जीवन में विवेक की आवश्यकता है।
मनुष्य को चलते समय आगे की भूमि को देख कर चलना चाहिए, जिससे किसी भी अन्य प्राणी की हिंसा से बचाव तो हो ही जाता है।
गर्दन ऊंची करके चलने वाला व्यक्ति अक्सर ठोकर ही खाता है। पैर घसीट कर चलने से शरीर में बीमारी पैदा हो सकती है।
खड़े रहते समय अपनी काया को स्थिर रखने से चित्त की एकाग्रता स्वत: ही हो जाती है।
स्त्री को झाडू, मूसल, झरोखे, दहलीज एवं वृक्ष के नीचे नहीं बैठना चाहिए।
वीणा के तार की तरह संतुलित निद्रा लेनी चाहिए क्योंकि अति निद्रा से रोगों की उत्पत्ति हो सकती है तो अनिद्रा के कारण व्यक्ति आलसी बन सकता है। समय पर सोने और समय पर उठने से मनुष्य स्वस्थ और बुद्धिमान हो जाएगा। सूर्योदय के बाद तो सोना ही नहीं चाहिए।
अनासक्ति रहे तो व्यक्ति षडरस मुक्त आहार करते हुए भी पाप कर्मों का बंध नहीं करता है। जिस प्रकार एक सर्प अपने बिल में सीधा घुस जाता है, उसी प्रकार भोजन सीधा मुंह से भीतर प्रविष्ट हो जाना चाहिए। मुंह से दो कार्य किए जाते हैं- खाना और बोलना तथा दोनों में विवेक जरूरी है अन्यथा बड़े से बड़ा अनर्थ हो जाता है।