जैन भवन रायपुरम में पुज्य जयतिलक मुनि जी ने “सर्व जीवा वि सुखिनभवंतु” की प्रेरणा दी। सभी जीवो को सुख चाहिए। किंतु न्याय निति को अपनाने वालों को ही मिल सकता है। संसारी जिसमें सुख मानता है वह वह वास्तविक सुख नहीं। किंतु सुख का आभास मात्र है। वह जीवन पर्यन्त प्रयत्न करता है किंतु अंत में कुछ भी हाथ में नहीं आता है। भगवान कहते है जिना सीखो ।अर्थात जी याने जीवन- न याने नमन। जिसने जीना सीख लिया उसका मरण क्षय हो जाता है अर्थात मोक्ष। जिसने जीना नहीं सीखा कषायों से आबद्ध होकर संसार बढ़ाता है ।कषाय और कसाई दोनों में सिर्फ अक्षर का अन्तर है किन्तु दोनो का स्वभाव एक ही है संसार बढ़ाना।
आगम में कालसौकरिक कसाई का वर्णन आता है जो 500 पांडे मारता और यह उसका संकल्प था। उसको मात्र धनार्जन ही दिखाई देता है। किंतु उन जीवों की पीड़ा दिखाई नहीं देती। वैसे ही क्रोध करने वाला कषाय करने वाला जीव भी कसाई की तरह कर्म करना शुरू कर देता है। उसे भी जीव कि वेदना दिखाई नहीं देती है! मोह कर्म के आवरण से जीव की पीडा उसे दिखाई नहीं देती। कंस भी उच्च कुल में जन्म लेता है किन्तु कषाय के वश कसाई से भी बदतर व्यवहार करता है। छल से माया से वचन बद्ध कर लेता है वासुदेव जी को। विश्वास किसका करना किसका नहीं करना यह भान आपको होना चाहिए!
एक कथा है एक तालाब के किनारे एक हंस बैठा था। पानी में से केकडा निकला किंतु उसे कहीं छाया नहीं दिखाई दी। हंस ने दया कर केकडा से कहा मेरे पंखो में बैठ जाओ। तुम्हें आराम मिलेगा। केकडा हंस के पंखो को काट देता है! शिकारी आता है हंस का शिकार कर लेता है। हर किसी पर भरोसा नहीं करना। वासुदेवजी को भी कंस का विश्वास नहीं करना चाहिए था। सोचना चाहिए था कि जो अपने पिता को नहीं बख्शा तो मेरे साथ क्या व्यवहार करेगा! किन्तु प्रशंसा में बेभान वचन दे बैठे! अपनी बहन के सामने ही उसके संतानो को निर्दयता से वध कर देता है! कसाई से भी बदतर व्यवहार । इस कषाय के कारण बड़े बड़े आचार्य को भी भोगना पड़ा । चंडकौशिक सर्प को पूर्व भव में बड़े आचार्य जो आतापणा लेते थे। शरीर को कर्म निर्जरा के लिए तपाना चाहिए। तपस्या करने के बाद यदि कषाय करे तो संसार तो बढ़ ही जाता है। मंत्री नरेन्द्र मरलेचा ने संचालन किया। यह जानकारी अध्यक्ष पारसमल कोठारी ने दी ।