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संवत्सरी महापर्व की आराधना

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सुंदेशा मुथा जैन भव

न कोंडितोप में पर्वाधिराज महापर्व के पावन प्रसंग पर जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सुरीश्वरजी म.सा ने महामंगलकारी बारसासूत्र का वाचन किया , तत्पश्चात् कहा कि:- आज के शुभ दिन 84 लाख जीवयोनियों में रहे समस्त जीवों के साथ हृदय से क्षमापना करने की हैं । यदि यह क्षमापना होती हैं तो महापर्व की आराधना सफल व सार्थक बनती हैं । क्रोध हमारे जीवन का सबसे बडा शत्रु है ।

वो आग की तरह हैं, जो हमारे जीवन के बाग को जलाकर पूरा भस्मसात कर देता है । जीवन में आत्मसात् किये सारे सद्गुण का नाश कर देता है । वैसे तो आग जीवनोपयोगी भी हैं, मटके को पकाने के लिए कुम्हार को भी आग की जरुरत रहती हैं, क्योंकि कच्चे घडे में पानी भरा नहीं जा सकता है । सोने की शुद्धि और परीक्षा के लिए भी अग्नि का ही उपयोग होता हैं । शरीर के अस्तित्व के लिए भोजन की जरुरत रहती हैं ।

जो अग्नि के बिना पकाया नहीं जा सकता । भोजन लेने के बाद भी पेट में रही जठराग्नि से ही उस भोजन का पाचन होता हैं अतः अग्नि के बिना जीवन निर्वाह नहीं होता । बाहर की अग्नि तो हमारे लिए जीवनोपयोगी हैं, जबकि दिमाग की गर्मी हमारे जीवन में आग लगा देती हैं । सबसे ज्यादा खतरनाक है क्रोध की अग्नि जिसके जलने से जीवन जल जाता हैं, और शुन्यावकाश छा जाता है ।

मकान में लगी थोडी सी आग की जानकारी मिलने पर व्यक्ति अपने घर परिवार आदि सब कुछ छोडकर भागने लगता है क्योंकि मरना किसी को भी पसंद नहीं हैं ।वैसे ही यह सारा संसार आग से जल रहा है । चारों ओर क्रोधादी कषायों की आग लगी हूई हैं ।ये आग जंगल में लगी भयंकर आग स्वरुप दावानल के समान है, जिससे मुक्त हो पाना अति कठिन हैं ।

मकान की आग तो मात्र एक जन्म का नाश करने वाली हैं, जबकि ये क्रोधादि कषायों की आग तो जन्म जन्मों तक आत्मा का भयंकर नुकसान करने वाली हैं दिन रात इन क्रोधादि कषायों की आग में हम झुलस रहे हैं, फिर भी इस आग से हमे भय नहीं लगता हैं, हमें क्रोध की आग से दुर रहना चाहिए। 

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