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संयमित वाणी का उपयोग करे : देवेंद्रसागरसूरीजी

संयमित वाणी का उपयोग करे : देवेंद्रसागरसूरीजी
बेंगलुरु। जीवन में वाणी का बहुत महत्व है। वाणी में अमृत भी है और विष भी, मिठास भी और कड़वापन भी। सुनते ही सामने वाला आग बबूला हो जाए और यदि वाणी में शालीनता है, तो सुनने वाला प्रशंसक बन जाए। ये बातें अक्कीपेट जैन मंदिर में विराजित आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी ने कही। 
उन्होंने कहा कि शास्त्रों में तीन प्रकार के तपों की चर्चा है। इनमें शारीरिक तप, मानसिक तप तथा वाचिक तप शामिल है। वाचिक तप के संबंध में कहा है कि उद्वेग उत्पन्न न करने वाले वाक्य, हित कारक तथा सत्य पर आधारित वचन एवं स्वाध्याय वाचिक तप है।
विदेशी विद्वान फ्रेंकलिन ने अपनी सफलता का रहस्य बताते हुए कहा था कि किसी के प्रति अप्रिय न बोलना तथा जो कुछ बोला जाए उसकी अच्छाइयों से संबंधित ही बोला जाए तो इस वाणी से सुनने वाला तो प्रसन्न होगा ही, बोलने वाला भी आनंदित होगा। वास्तव में वाणी को संयम में रखने वाला व्यक्ति ऊंचाइयों तक पहुंच जाता है।
इसके विपरीत अनियंत्रित वाणी वाले व्यक्ति को प्राय: जीवन भर सफलता प्राप्त नहीं हो पाती। जो व्यक्ति वाणी से सदैव मीठा बोलता है उसके मित्रों का क्षेत्र भी विस्तारित होता है। मृदुभाषी होने की स्थिति में लोगों के सहयोग और समर्थन में वह अत्यधिक ऊर्जा का संग्रह कर लेता है, जबकि कटु वचन बोलने वाला व्यक्ति अकेला पड़ जाता है।
उन्होंने कहा कि जो लोग मन बुद्धि व ज्ञान की छलनी में छानकर वाणी का प्रयोग करते हैं वे ही हित की बातों को समझते हैं और वे ही शब्द और अर्थ के संबंध ज्ञान को जानते हैं। आचार्यश्री ने कहा कि जो व्यक्ति बुद्धि से शुद्ध वचन का उच्चारण करता है वह अपने हित को तो समझता ही है जिससे बात कर रहा है उसके हित भी समझता है।
वाणी में आध्यात्मिक और भौतिक, दोनों प्रकार के ऐश्वर्य हैं। मधुरता से कही गई बात कल्याण कारक रहती है, किंतु वही कटु शब्दों में कही जाए तो अनर्थ का कारण बन सकती है। कटु वचन रूपी बाण से किसी के मर्म स्थलों को घायल करना पाप है। कटु वाक्यों का त्याग करने में अपना और औरों का भी भला है।

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