श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में बिराजमान आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी ने पर्युषण पर्व की महत्ता के ऊपर प्रकाश डालते हुए कहा की भारत पर्वों और त्योहारों का देश है। उनमें न केवल भौतिक आकर्षण से पर्व है बल्कि आत्म साधना और त्याग से जुड़े पर्व भी हैं। एक ऐसा ही अनूठा पर्व है पर्युषण महापर्व। यह मात्र जैनों का पर्व नहीं है, यह एक सार्वभौम पर्व है, मानव मात्र का पर्व है। पूरे विश्व के लिए यह एक उत्तम और उत्कृष्ट पर्व है, क्योंकि इसमें आत्मा की उपासना की जाती है। आचार्य श्री ने आगे कहा की संपूर्ण संसार में यही एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का सद्प्रयास करता है।
पर्युषण पर्व अंतरआत्मा की आराधना का पर्व है, आत्मशोधन का पर्व है, निद्रा त्यागने का पर्व है। सचमुच में पर्युषण पर्व एक ऐसा सवेरा है, जो निद्रा से उठाकर जागृत अवस्था में ले जाता है। अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाता है। तो जरूरी है प्रमादरूपी नींद को हटाकर इन 8 दिनों विशेष तप, जप, स्वाध्याय की आराधना करते हुए अपने आपको सुवासित करते हुए अंतरआत्मा में लीन हो जाएं जिससे हमारा जीवन सार्थक व सफल हो पाएगा। आज पूरे विश्व को सबसे ज्यादा जरूरत है अहिंसा की, मैत्री की। यह पर्व अहिंसा और मैत्री का पर्व है।
अहिंसा और मैत्री के द्वारा ही शांति मिल सकती है। आज जो हिंसा, आतंक, आपसी द्वेष, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार जैसी ज्वलंत समस्याएं न केवल देश के लिए, बल्कि दुनिया के लिए चिंता का बड़ा कारण बनी हुई हैं और सभी कोई इन समस्याओं का समाधान चाहते हैं, उन लोगों के लिए पर्युषण पर्व एक प्रेरणा है, पाथेय है, मार्गदर्शन है और अहिंसक जीवनशैली का प्रयोग है। अंत में मुनि श्री महापद्मसागर जी ने कहा की आज भौतिकता की चकाचौंध में, भागती जिंदगी की अंधी दौड़ में इस पर्व की प्रासंगिकता बनाए रखना ज्यादा जरूरी है। इसके लिए जैन समाज संवेदनशील बने, विशेषत: युवा पीढ़ी पर्युषण पर्व की मूल्यवत्ता से परिचित हो और वे सामायिक, मौन, जप, ध्यान, स्वाध्याय, आहार संयम, इन्द्रिय निग्रह, जीवदया आदि के माध्यम से आत्मचेतना को जगाने वाले इन दुर्लभ क्षणों से स्वयं लाभान्वित हो और जन-जन के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत करे।