नवपदों में आठवां पद चारित्र पद का आता है जिसके ऊपर प्रकाश डालते हुए बिन्नी नोर्थटाउन के श्री सुमतीवल्लभ जैन संघ में चातुर्मास हेतु विराजित पूज्य आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने कहा कि आचरण से साधुता होते हुए भी समाज में किसी व्यक्ति की तब तक वंदना नहीं की जाती जब तक वह साधु का वेश धारण न कर ले। साधु के पंच महाव्रतों और उनके गुणों की वंदना की जाती है। साधू का सत् चरित्र और उनका परोपकारपूर्वक आचरण वंदनीय होता है।
आचार्य श्री ने कहा कि द्रव्य और भाव चारित्र की अनुमोदना करते-करते जो देह त्यागता है उसे देव गति और उससे भी उत्कृष्ट सिद्धत्व दिलाने वाली गति प्राप्त होती है। हम इस जन्म में चारित्र न भी ले पाएं तो भी परमात्मा से ऐसी प्रार्थना करें कि मेरे हृदय में ऐसी उत्कृष्ट भावना जागे और मैं भी संयम जीवन अंगीकार कर चारित्र पद की आराधना कर सकूं।जब तक मनुष्य के चरित्र में संयमता नहीं आएगी तब तक वह अधिक पाने की लालसा में अधर्म का मार्ग अपनाता रहता है।
यही अधर्म उसके दु:खों का कारण बनता है। ऐसे में हमें प्रभुश्री के बताए मार्गों पर चलकर नवपदो की आराधना करनी होगी ताकि जीवन में उत्तम चारित्र पद की प्राप्ति हो सके। हम चारित्र ग्रहण करें, ऐसी भावना मन में रखे पर जीवन में अंतराय कर्मों के उदय के चलते यदि हम चारित्र जीवन में ग्रहण नहीं भी कर पाएं तो भी अपने जीवन को संयमित रखते हुए आने वाले फालतू के कामों से मुक्त होकर चारित्र धर्म की आराधना कर सकते हैं। संस्कृत में चरित्र का मतलब आचरण है। इस प्रकार सम्यग् चरित्र से तात्पर्य सही आचरण है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए यह तीन रत्नों में से तीसरा है। अंत में आचार्य श्री ने कहा कि नवपद की साधना से जीवन में निखार आता है। मन में व्याप्त विकारों का नाश होता है। मनुष्य के अंतर्मन में शुद्ध भाव जागृत होते है और उसी से दान उत्तम शील के भाव मनुष्य के जीवन में आते है।