साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने कहा अपनी संतान को सशक्त बनाने के लिए पांच वर्ष तक पुत्र का लालन-पालन करना चाहिए, जब दस वर्ष का हो जाए तो उसे नियंत्रण में रखना चाहिए तथा जब वह सोलह साल का हो जाए,तब उसके साथ मित्र जैसा बर्ताव करना चाहिए।
जिस तरह हंसों की सभा में बगुले शोभायमान नहीं होते, वैसे ही विद्वानों की सभा में मूर्ख शोभायमान नहीं पाते। इसलिए वे माता-पिता वैरी और शत्रु हैं, जो अपनी संतान को सुसंस्कारों की शिक्षा से सुशिक्षित नहीं करते। पुत्र यदि दुराचारी है तो यह मां का दोष है, पुत्र यदि मूर्ख है तो पिता का दोष है, पुत्र यदि कंजूस है तो वंश का दोष है और पुत्र यदि दरिद्र है तो यह स्वयं पुत्र का ही दोष है। पर्यूषण पर्व क्षमापना पर्व के नाम से जाना जाता है। क्षमापना पराये को भी अपना बना देती है।
प्रभु महावीर मातृ भक्त थे, माता-पिता का अपने प्रति मोह देखकर मां के गर्भ में ही वीर ने संकल्प लिया कि माता-पिता की हाजिरी में, मैं संयम अंगीकार नहीं करूंगा। सिद्धार्थ राजा के यहां प्रभु वीर का जन्म होते ही धन-धान्य आदि की वृद्धि होने से माता-माता ने प्रभु वीर का नाम वर्द्धमान रखा।
प्रभु वीर का साहस भी अद्भुत था, इंद्र का संशय मिटाने के लिए एक अंगूठे मात्र से मेरू पर्वत को कंपायमान कर दिया था, प्रभु चरण का स्पर्श पाकर मेरु पर्वत भी अपने आप को धन्य मानने लगा। आमलकी क्रीड़ा करते हुए बाल्यावस्था में ही राक्षस बनकर आए क्रूर देव को परास्त करके अपने मित्रों के समक्ष अपनी शूरवीरता एवं दीक्षा के बाद भिक्षा के लिए आए ब्राह्मण को अपना देवरूप प्रदान कर अपनी दानवीरता का परिचय दिया। तपस्या के साथ अनेकों उपसर्ग सहन करके प्रभु तपवीर भी बने। अपनी ज्ञानवीरता के प्रभाव से अपने ही अध्यापक का संशय दूर किया।