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संगति का जीवन में बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है : देवेंद्रसागरसूरि

संगति का जीवन में बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है : देवेंद्रसागरसूरि

Sagevaani.com /चेन्नई. श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी ने प्रवचन देते हुए कहा कि मनुष्य के चरित्र निर्माण में संगति का बहुत प्रभाव पड़ता है। हमारे शास्त्रों में सत्संगति को बहुत महत्व दिया गया है। सत्संगति का अर्थ सच्चरित्र व्यक्तियों के संपर्क में रहना, उनसे संबंध बनाना है। सच्चरित्र व्यक्तियों की संगति से साधारण व्यक्ति भी महत्वपूर्ण बन जाता है।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में ही जन्म लेता है और अंत तक रहता है। अपने परिवार, संबंधियों और आस-पड़ोस वालों और अपने कार्यस्थल में वह कई प्रकार के स्वभाव वाले व्यक्तियों के संपर्क में आता है। निरंतर संपर्क के कारण एक-दूसरे का प्रभाव एक-दूसरे के विचारों और व्यवहार पर पड़ते रहना स्वाभाविक है।

बुरे व्यक्तियों के संपर्क में हम पर बुरे संस्कार पड़ते हैं और अच्छे लोगों के संपर्क में आकर हममें गुणों का समावेश होता चला जाता है। धीरे-धीरे आयु बढ़ने के साथ मनुष्य जीवन का अर्थ समझने का प्रयास करता है और उसकी संगति के अनुसार ही जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण बनता है। सत्संगति मनुष्य को उच्च विचारों को अपनाने के लिए प्रेरित करती है और उसके चरित्र बल को बढ़ाती है, जबकि कुसंगति में मनुष्य के चरित्र में निरंतर गिरावट आती है और मनुष्य सही मार्ग से भटककर स्वयं अपना जीवन तबाह कर लेता है।सत्संगति का अर्थ है अच्छे लोगों की संगति, गुणी व्यक्तियों का साथ। अच्छे मनुष्य का अर्थ है वह व्यक्ति जिनका आचरण अच्छा है, जो सदा श्रेष्ठ गुणों को धारण करते और अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के प्रति अच्छा बर्ताव करते हैं।

जो सत्य का पालन करते हैं, परोपकारी हैं, अच्छे चरित्र के सारे गुण उसमें विद्यमान हैं, जो निष्कपट एवं दयावान हैं, जिनका व्यवहार सदा सभी के साथ अच्छा रहता है। ऐसे अच्छे व्यक्तियों के साथ रहना, उनकी बातें सुनना, उनकी पुस्तकों को पढ़ना, ऐसे सच्चरित्र व्यक्तियों की जीवनी पढ़ना और उनकी अच्छाइयों की चर्चा करना सत्संगति के ही अंतर्गत आते हैं। दुष्ट स्वभाव के मनुष्यों के साथ रहना कुसंगति है। कुसंगति छूत की एक भयंकर बीमारी के समान है। कुसंगति का विष धीरे-धीरे मनुष्य के संपूर्ण गुणों को मार डालता है। इसके चक्कर में यदि कोई चतुर से चतुर व्यक्ति भी फंस जाता है तो उससे बच कर साफ निकल जाना उसके लिए भी संभव नहीं होता। इसी प्रकार की कुसंगति से बचना हमारा परम कर्तव्य है।

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