बेंगलुरु। आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी की पावनकारी निश्रा में श्रुतपंचमी की आराधना शुक्रवार को यहां अक्कीपेट में करवाई गई। आराधना में सम्मिलित हुए आराधकों से आचार्यश्री ने कहा कि जैन संप्रदाय द्वारा प्रतिवर्ष कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी को श्रुतपंचमी-पर्व मनाया जाता है।
उन्होंने कहा कि श्रुत और ज्ञान की आराधना का यह महान पर्व हमें वीतरागी संतों की वाणी, आराधना और प्रभावना का सन्देश देता है। श्रुतपूजा के साथ सिद्धभक्ति – का भी इस दिन पाठ करना चाहिये।
शास्त्रों की देखभाल, उनकी जिल्द आदि बनवाना, शास्त्र भण्डार की सफाई आदि करना, इस तरह शास्त्रों की विनय करना चाहिये। आचार्य श्रीजी बोले, जैन धर्म के अनुसार ज्ञान आत्मा का गुण है। आत्मा ज्ञानमय है, ज्ञानस्वरुप है।
मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान को विस्तार से परिभाषित करते हुए देवेंद्रसागरजी ने कहा कि मन एवं इंद्रियों के द्वारा हुए अर्थज्ञान का वाच्यार्थ ज्ञान, यानी पहले के ज्ञान की विशद व्याख्या, अर्थ कहने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा जाता है।
शास्त्र, ग्रंथ, शब्द, अक्षरों के द्वारा प्राप्त होने वाले ज्ञान भी श्रुतज्ञान में समाविष्ट हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मन एवं इंद्रियों की सहाय के बगैर तीनों लोक के तमाम मूर्त-अमूर्त पदार्थों को एवं मनोभावों को यथावत् जानने वाला होता है ज्ञान।
ऐसे ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। ज्ञानावरणीय कर्म जब संपूर्णतया नष्ट हो जाता है तब यह ज्ञान प्रकट होता है।