रायपुरम जैन भवन में विराजित पुज्य जयतिलक जी मरासा ने प्रवचन में फ़रमाया कि प्रसंग श्रीपाल चरित्र का चल रहा है। श्रीपाल जी का जीवन एक अदयुत प्रसंग है! जन्म से लेकर कष्टों की अनुभुति किंतु नवपद स्मरण से सभी बाधाओं को दूर किया। कभी मिथ्यात्व का सेवन नहीं किया। सभी बाधाएं मात्र नवकार शरण से दूर हो गई। अलग से साधना की कोई जरूरत नहीं बस नवकार पर श्रद्धा रखो। और जीवन में आगे बढ़ते जातो! तिर्थंकर से लेकर सामन्य जीव नवकार आराधन करते है।
ॐ हीँ श्रीँ मात्र लौकिक बाधा को दूर करने के लिए है! लोकोत्तर फल के लिए मात्र नवपद ही काफी है मात्र श्रद्धा होनी चाहिए। चारो गति के जीव इस नवपद के आगे नतमस्तक होते है। जंगल में चंदन से सैकड़ों सर्प लिपटे रहते है। मेघ गर्जन से दूर हो जाते है, उसी तरह नवपद का स्मरण से सारे कष्ट दूर हो जाते है. यहाँ तक जीव अष्ट कर्मो से मुक्त हो जाते है। जिन्होंने भी इस भव परमव में आशातना की है तो इस नवपद से सारे आशातना को कर्म क्षय हो जाता है। मात्र शुद्ध श्रद्धा के लिए गणघर ने श्रेणिक के आगे यह कथन सुनाया जिससे श्रेणिक ने तीर्थकर गोत्र बांधा ! आप भी अपनी आत्मा को कल्याण करें।
जब धर्मक्षस्थान में सैनिक ने आकर बताया की एक तस्कर को पकड़ा है तो राजा ने दण्ड का आदेश दिया। तब श्रीपाल जी ने कहा- आपको धर्मस्थान में ऐसी बात शोभा नहीं देता है। धर्मस्थान पर दण्ड की बात मत करो। उसे बुलाओ और पुछताछ कर फिर दण्ड दिजीए ! तब धवल सेठ को सामने लाया गया। तब श्रीपाल कहते है किसने बताया की यह चोर है? यह तो मेरे धर्म पिता समान है । इनके संग ही मैं यहाँ आया हूँ। यह कोटि संपन जहाजों के अधिकारी है! राजा के घवल सेठ को माफ़ कर राजा से सम्मान दिलवाया! एक दिन सेठजी आकर श्रीपाल जी से कहते है। सारी वस्तुओं का वाणिज्य हो गया अब आगे की तैयारी करनी चाहिए ।
श्रीपाल जी ने राजा कनककेतु से आज्ञा मांगी। राजा ने सोचा परदेशी से क्या मोह, पराये गहनों पर क्या आसक्ति। अत: विदाई की तैयारी की। पुत्री को भी हित शिक्षा दी ! यह पुत्री मेरी प्राणो से प्रिय है! आप अन्य राजकुमारी से भले ही विवाह करना किंतु मेरी पुत्री को दुःख मत देना! यह राजा रानी विनती करते है और आँखो में ममता के आँसू आ गये।