पुज्य जयतिलक जी म सा ने जैन भवन, रायपुरम में प्रवचन में बताया कि श्रावक संसार में रहते हुए भी आत्म कल्याण का प्रयास करता है एवं निवृत होने का प्रयास करता है। जहाँ परिग्रह है वहाँ हिंसा होती है परिग्रह के कारण ही युद्ध होते है। परिग्रह विभाव में ले जाता है! विभाव विषयालय है! अनेक जीवों का घमासान होता है। और स्व पर को कष्ट पहुँचाता है। संसार परिभ्रमण का मुख्य कारण परिग्रह, आसक्ति है। यहाँ तक की संकलपणा हिंसा से भी नहीं घबराता है अतः भगवान कहते है मर्यादा भर लो । आत्मा हल्कि होने लगती है! हल्की आत्मा उर्ध्वगमकन होती है। पाप कर्म से मुक्त होने पर आत्मा ऊपर उठती है! स्वभाव में रमण करने लगती है स्वभाव अमृत है। परिगृह बेडी है! अपरिग्रह मुक्ति का मार्ग है। सारे क्लेश, द्ववंद, इगडे का मूल कारण परिग्रह है। भाई भाई के बीच मूल क्लेश का कारण परिग्रह है।
आज दिवप्द का वर्णन चल रहा है। द्विप्द अर्थात दो पैर वाला। घर में जो नौकर चाकर रहते हैं वह भी परिग्रह के दायरे में आते है। नौकर के प्रति भी आसक्ति होती है। दुकान के मुनीम आदि भी परिग्रह की श्रेणी में आते हैं। ऐसे द्विपद को परिग्रह की मर्यादा करना! चतुष्पद :- गाय, भैंस, ऊंट, घोडा, गधा, कुत्ता, आदि चतुष्पद की श्रेणी में आता है ! आज के युग में बाकी सब तो चले गये। किंतु कुत्ते का परिग्रह नहीं गया। ऐसे प्राणी के प्रति भी आसक्ति होती है। उसके लिए भी परिग्रह संग्रह किये जाते है। अत: चतुष्पद की मर्यादा कर लेनी चाहिए !
सोना चांदी को छोड़ शेष धातु कुपिय धातु है घर की शेष सामग्री पुरी कुपिय घातु में आती है! अब आपको सोच कर मर्यादा करनी है। उनकी मर्यादा करें। एक हद तक आप परिग्रह रखों और शेष का त्याग कर दो। कुपिय की मर्यादा ऐसे करो की घर के मूल्य से आधा मूल्य का कुपिय रखो। यदि घर आपके नाम पर है तो कुपिय भी आपके नाम होगा, अन्यथा नहीं। मर्यादा करे एवं सोच समझ कर मर्यादा करे एवं शेष का त्याग करे! पापकर्मो से बचे। 5 कर्मदान से बचे। अन्य परिगृही बनकर आत्मा से हल्का बने। संचालन ज्ञानचंद कोठारी ने किया।