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श्रावक वही, जो सच्ची श्रद्धा को अपनाए: मुनि हितेंद्र ऋषि

श्रावक वही, जो सच्ची श्रद्धा को अपनाए: मुनि हितेंद्र ऋषि

एएमकेएम में उत्तराध्ययन सूत्र का स्वाध्याय

एएमकेएम जैन मेमोरियल सेंटर में चातुर्मासार्थ विराजित श्रमण संघीय युवाचार्य महेंद्र ऋषिजी के शिष्य हितमित भाषी मुनि हितेंद्र ऋषिजी ने उत्तराध्ययन सूत्र के 31वें और 32वें अध्याय का स्वाध्याय करते हुए कहा कि प्रभु महावीर की अंतिम देशना का उत्तराध्ययन सूत्र के माध्यम से हम स्वाध्याय कर रहे हैं। विचार कीजिए पूर्वधर आचार्यों ने वह लेखन करने का पुरुषार्थ नहीं किया होता तो आज प्रभु की वाणी हम तक नहीं पहुंचती। इस वाणी को आज हम सुनकर कान और मन को पवित्र, पावन बना रहे हैं। प्रभु की वाणी जीवन में बदलाव लाने वाली है।

उन्होंने कहा उत्तराध्ययन सूत्र का स्वाध्याय कर उसे हमारे जीवन में उतारना है। यह केवल साधु के लिए ही नहीं है श्रावक के लिए भी इसलिए है क्योंकि उनमें साधु बनने की भावना आए। श्रावक वही जो सच्ची श्रद्धा को अपनाए।आज श्रावक श्रावक तो बनता नहीं बल्कि साधुओं को उपदेश देने में लगा है। क्या इसके लिए प्रभु ने चार तीर्थ बनाया। हमारी श्रद्धा निरंतर डांवाडोल होती जा रही है। इसलिए मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते।

उन्होंने कहा सम्यक पराक्रम में बताया गया है, डांवाडोल श्रद्धा को मत रखने दो। धर्म से कर्मनिर्जरा होती है। इस भव में कर्मनिर्जरा करोगे तो अगले भव में सुख मिलेगा। जैसे व्यक्ति के कर्म रहेंगे, वैसी गति को प्राप्त करेगा। जो सम्यक्त्व को अपनाएंगे, वह सही दिशा में चलेंगे। इस अध्याय में कहा गया है कि मुख्य रूप से राग-द्वेष सबको छोड़ना है। भीतर में जब तक राग-द्वेष है, मोक्ष का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता। भले ही अच्छी से अच्छी क्रिया, स्वाध्याय कर ले लेकिन यदि राग-द्वेष नहीं छूटता है तो उसको मोक्ष का सुख प्राप्त होने वाला नहीं है। एक बड़े तालाब में जल आने से रोक दिया तो तालाब सूख जाएगा। इसी प्रकार तप करने से पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। अन्य धर्मों की अपेक्षा जैन धर्म में तप की महिमा बताई गई है। तप करने से मनोवांछित इच्छाएं फल देने वाली है। लेकिन तप कर्मनिर्जरा के लिए ही करना चाहिए।

उन्होंने कहा तप 12 प्रकार के बताए गए हैं छः बाहृय तप और छः आभ्यंतर तप। बाहृय तप में अनशन यानी उपवास करना, बड़ी तपस्या करना। अनशन में संथारा आदि समाविष्ट हो जाते हैं। उणोदरी तप यानी भूख से कम भोजन करना। भाव, अभिग्रह भी इसी के प्रकार है। यह जितना सरल है उतना ही कठिन भी है। भिक्षा चर्या यानी घर घर जाकर आहार ग्रहण करना। इसमें विघई का त्याग करना। काय क्लेश यानी शरीर को उग्र आसनों से कष्ट देना। साधु का केशलोचन भी इसी का प्रकार है। प्रति संल्लीनता यानी स्त्री, पशु जहां हो, वहां नहीं रहना।

उन्होंने कहा आभ्यंतर तप में गुरु के समक्ष आलोचना लेना, उसे प्रायश्चित कहते हैं। विनय, वैयावच्च, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग में शुक्ल तप की ओर बढ़ना। कायोत्सर्ग में शरीर से हिलना, डुलना नहीं। इन तपों में सबसे सरल स्वाध्याय हैं और सबसे कठिन भी वही है। यह तपोमार्ग अपनाकर आप अपने जीवन को मोक्ष मार्ग की ओर प्रशस्त करें। उन्होंने कहा चरण विधि यानी विवेकपूर्ण प्रवृत्ति। विवेकपूर्ण प्रवृत्ति ही संयम है। एक ओर प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति ले लेनी चाहिए। निवृत्ति असंयम की लेनी है। इसका अर्थ है प्रवृत्ति में संयम लेना। कोई भी कार्य करो, विवेकपूर्ण करो। संसार में रहना है तो असंयम से निवृत्ति ले लेनी। उन्होंने कहा धर्म साधना करने का यही समय है। कभी भी मृत्यु आ सकती है, उस समय धर्म साधना छूट जाएगी।

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