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ज्ञान वाणी

श्रद्धावान ही है ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

श्रद्धावान ही है ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. गुरुवार को श्री एएमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने कहा कि

अनुत्तर निर्वाण कल्याणक की देशना तीर्थंकर परमात्मा का दिया हुआ वरदान है। सभी वरदानों को प्राप्त करने का पहला वरदान है विनय। अनादिकाल के अपने अन्तर के अविनय के मिथ्यात्व से मुक्त होकर प्रभु के चरणों में भाव बनाएं कि अविनय के अंधियारे में हमने बहुत ठोकरें खाई है, हमें आपसे विनय का उजाला मिले, मार्ग मिले। इस गहरी भावना के साथ परमात्मा के दिए हुए वरदानों का गान करते हुए श्रुतदेव की आराधना करें।

परमात्मा ने कहा है कि ज्ञान, दर्शन, चरित्र की कम से कम आराधना भी यदि कोई करे तो सातआठ भव में वह मोक्ष में जाएगा। मरीची के भव में परमात्मा के पास ज्ञान, दर्शन, चरित्र सभी था लेकिन आराधना का भाव नहीं था इसलिए उसी भव में मोक्ष प्राप्त नहीं हो सका, इसलिए आराधना को परमात्मा ने सबसे बड़ा कहा है।

पूज्य पन्नालालजी महाराज ने जो स्वाध्याय की महान परंपरा शुरू की। हमें इसे मात्र पर्यूषण के समय ही नहीं बल्कि पूरे वर्षभर करना चाहिए। इसके अभाव में कोई भी आकर आपको भटका सकता है। अपने धर्मग्रंथों और आगम की पूरी जानकारी और बोध होना चाहिए। आगम और धर्मग्रंथों की आराधना में कोई निश्चित समय और स्थिति नहीं होनी चाहिए, कोई बंधन नहीं होना चाहिए। अपने धर्मगं्रथों का स्वाध्याय करने की अनिवार्यता होना चाहिए।

उत्तराध्ययन अनुत्तर ग्रंथ में परमात्मा ने अपने अंतिम समय में एक पिता ही तरह संतान को दिया जाने वाला अपने संपूर्ण जीवन के ज्ञान का निचोड़ प्रदान किया है। आराधना भक्ति पूर्वक की जाती है और स्वाध्याय बुद्धिपूर्वक। बच्चे को मां के पास पढऩे के लिए कोई नियम, बंधन नहीं होते हैं, वहां तो दिल का मामला होता है। इसी आधार पर यह श्रुतदेव आराधना की परंपरा शुरू की गई है।

स्वाध्याय में तो सीमित अर्थ मिलता है लेकिन आराधना में एक अलग ही आनन्द, अर्थ और दिलों में उजाला प्राप्त होता है।परमात्मा ने उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि ज्ञान श्रद्धावान को ही ज्ञान मिलता है बुद्धिमान को नहीं। श्रुतदेव की आराधना इसी भाव के साथ शुरू की गई है।

भगवान के समवशरण में तीर्यंच और पशुपक्षी आते हैं। वे परमात्मा के भावों को ग्रहण करते हैं। परमात्मा के शब्दों को सुधर्मास्वामी ने बादल की उपमा दी है। उनके शब्दों से पहले उनके भाव सभी के पास पहुंचते हैं। जैसा तारों में चंद्रमा की शीतलता है, गंध में चंदन की गंध है, वैसे ही परमात्मा के शब्द मेघ की गर्जना के समान हैं उन्हें कोई नहीं रोक सकता।

18 नवम्बर को चातुर्मास के अवसर पर कार्यकर्ता और सभी सहयोग करने वालों का सम्मान किया जाएगा।

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