किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरीजी के समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी म.सा. ने प्रवचन में कहा कि क्षमा गुण में सबसे महान् तीर्थंकर है। शील में नारद, युद्ध के बल में वासुदेव, सौंदर्य में चक्रवर्ती रत्न, दान में शालीभद्र और विश्रमण देव और वैभव में चक्रवर्ती को महान् बताया गया है। इस तरह अलग-अलग परिचय दिए हैं। इसी तरह अलग-अलग पदार्थों के अलग-अलग स्वभाव है। सिद्ध भगवंत अपना स्वभाव कभी नहीं बदलते।
उनके लिए दृश्य बदलता है, दृष्टा नहीं, इसका नाम सिद्धावस्था है। जैसे कांच अपना स्वभाव नहीं बदलता, चाहे उसके सामने पत्थर हो या सोना, वह स्थिर रहता है। गुरुदेव ने बताया कि पूजा दो प्रकार की होती है द्रव्य और भाव पूजा। द्रव्यपूजा के अंदर भावों को पिरोना जरूरी है। भाव के बिना दीक्षा अनंत बार लेने पर भी फलित नहीं होती। अशुभ भाव को बाहर निकालना सबसे बड़ा धर्म है। संसार के सारे सुखों की सामग्री शुरुआत में ही सुख देती है। आचार्यश्री ने कहा जो खुद के अनुभव से चले, वे विवेकी होते हैं, जो स्वच्छंदता से चले, वे विकृति कहलाते हैं।
त्याग में सबसे अग्रणी मुनि और भावधर्म में सबसे अग्रणी समकिती आत्मा होती है। भावधर्म का अर्थ है- अनासक्त जितना महान् योग होता है, भाव धर्म उतना ही महान् होता है। सामग्री भरपूर पड़ी है, खाने का भी अधिकार है और मैं वह वापरूं नहीं, यह भावधर्म है। मनुष्य जीवन की दस दशा से गुजरते हैं, वे है बाला यानी बाल्यावस्था, क्रीड़ा यानी खेलना- कूदना, मंदा यानी जिस अवस्था में समझ का नहीं होना, बल यानी बल,शक्ति, प्रज्ञा यानी टैलेंट का विकास, प्रपंचा यानी शारीरिक प्रपंचों का बाहर आना, हायनी यानी विचार और शरीर की शक्ति मंद हो जाना, प्रभारा यानी पीठ आदि झुक जाना, मनमुखी यानी झरझरित अवस्था और हायनी यानी शयन करते रहना।
उन्होंने कहा प्रज्ञा दशा में टैलेंट का विकास आगे बहुत काम आता है। अभ्यास से हर कार्य सिद्ध होते हैं। क्रिया, ज्ञान और ध्यान में ध्यान बहुत महत्वपूर्ण है। इसे सबसे ज्यादा करना चाहिए। धर्म क्रिया से शुरू होता है। ह्रदय को स्वच्छ दर्पण जैसा बनाने के लिए ध्यान योग को अपनाओ। ध्यान से आगे लय में प्रवेश किया जा सकता है। उन्होंने कहा पुण्य करना आसान है लेकिन पाप छोड़ना मुश्किल है। शुभ भाव लाना आसान है परंतु अशुभ भाव छोड़ना मुश्किल है।
मुनिश्री ध्यानप्रभ विजयजी म.सा. ने कहा कि परमात्मा अनंत गुणों के धारक हैं। परमात्मा त्रिकाल ज्ञानी है। परमात्मा मन- वचन से भी हमारे ऊपर उपकार करते हैं। देवता और देवियां चार प्रकार के होते हैं। उनके ऊपर भी परमात्मा उपकार करते हैं। परमात्मा का प्रचंड पुण्य है कि वे सम्यक् ज्ञान को पुष्ट करते हैं। चौदह राजलोक के बारे में परमात्मा ने ही बताया है।