एमकेबी नगर जैन स्थानक में विराजित साध्वी धर्मप्रभा ने कहा कि आत्मा में प्रशम गुण नहीं आता तब तक मोक्षगुण और परम सुख का अनुभव नहीं हो सकता। सम्यक दृष्टि, ज्ञानी, ध्यानी और तपस्वी भी उस सुख का अनुभव नहीं ले सकते जिस सुख का अनुभव शांत आत्मा ही कर सकती है। शम का अर्थ है शांत और प्रशम का अर्थ है विशेष शांत। कषाय ,तृष्णा, लालसा से मन में उद्वेग उत्पन्न होता है।
भावों में उग्रता, उत्तेजना और चंचलता आती है और जब तक यह उत्तेजना बनी रहती है तब तक शांति नहीं मिलती। जिसका मन अंशात होता है उसे संगीत, भोजन, मान-सम्मान और दूसरे कामें में सुख का अनुभव नहीं होता। नीचे चूल्हे की जलती आग से ऊपर शीतलता कैसे आ सकती है। प्रशम भाव आने से जो आत्मिक सुख और आनंद प्राप्त होता है वो ज्ञान ध्यान से भी श्रेष्ठ है।
सबसे पहले प्रशम की ही साधना करना चाहिए। साध्वी स्नेह प्रभा ने ब्रह्मचर्य का महत्व बताते हुए कहा कि ये तपों में सर्वश्रेष्ठ तप है। ब्रह्मचर्य की साधना बिना किसी मजबूरी से नहीं बल्कि आत्मबल की दृढ़ता से की जाए तो कई लब्धियां और सिद्धियां प्राप्त होती हैं क्योंकि इसका पालन करना दुष्कर है। इंद्रियों के समूह और मन को शांत रखना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है ।
मात्र एक ब्रह्मचर्य के नष्ट होने से ही सभी गुण जैसे उत्तम तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यकत्व और विनय सब नष्ट हो जाते हैं। जो विषय वासना के प्रवाह को नहीं तैर पाते वो संसार के प्रवाह को तैर कर मोक्ष रूपी किनारे पर नहीं पहुंच पाते।