तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता-शांतिदूत-अहिंसा यात्रा के प्रणेता-महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी में अपने मंगल पाथेय में फरमाते हुए कहा कि जीव के शुभ और अशुभ परिणाम से संग्रहित पुद्गल कर्म रूप में परिणित होते हैं वे कर्म कहलाते हैं। कर्म जीव नहीं होते है ये पुद्गल होते हैं जो शुभ और अशुभ के परिणाम से आबद्ध होते हैं।
इन्हीं के आधार पर पुण्य और पाप का बंद होता है। आठ प्रकार के कर्मों में चार कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय अंतराय और मोहनीय अशुभ और वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र यह शुभ और अशुभ दोनों का परिणाम देते हैं।
जिस प्रकार चुंबक लोहे को खींचती है उसी प्रकार हमारे शुभ और अशुभ परिणाम चुंबक की भूमिका निभाते हुए पुद्गल को अपनी ओर खींचते है। शुद्ध साधु को सरल मन से दान देने, शुभ चिंतन करने व्याख्यान श्रवण एवं दूसरों को उपदेश देने से साधु को वंदन करने से निर्जरा होती है और निर्जरा से पुण्य का बंध होता है।
आचार्य भिक्षु की मान्यता के अनुसार स्वतंत्र पुण्य का बंध नहीं होता है निर्जरा और पुण्य दोनों साथ-साथ होते हैं जिस प्रकार अनाज के साथ भूसी होती है उसी प्रकार पुण्य के साथ निर्जरा होती है। पुण्य का बंध होगा तो निर्जरा स्वतः ही होती जाती है। हिंसात्मक कार्यों से, झूठ बोलने, हिंसा के भाव लाने से पाप का बंध होता है। पाप कर्म के बंध होने में पापस्थान, पापात्मक प्रवृत्ति और फिर पाप का बंध होता है।
जिस कर्म के उदय से हिंसा की भावना आती है वह पापस्थान कहलाता है और हिंसा करना पाप की प्रवृत्ति है और हिंसा से जिन कर्मों का बंधन होता है उन्हें पाप का बंध कहा जाता है। 18 प्रकार के पाप बताए गए हैं उनकी प्रवृत्ति करने से अशुभ पुद्गलों आबद्ध होते है और पाप का बंध होता है। प्रवृत्ति को आश्रव माना जाता है और आश्रव से कर्म का बंध होता है।
संवर में कर्म का बंध नहीं होता है। पुण्य के नौ भेद बताते हुए कहा कि पांच जीव होते हैं और 4 अजीव होते हैं। आचार्य प्रवर ने संस्कार निर्माण शिविर में उपस्थित बालक-बालिकाओं को नौ तत्वों को जीव-अजीव के विषय में सरस तरीके से समझाते हुए विवेचन किया एवं नो तत्वों को जीवन में धारण करने की चाबी शिविरार्थियों को प्रदान की।
कार्यक्रम में ”शासन सेवी” श्री लक्ष्मणसिंहजी कर्नावट द्वारा लिखित ग्रंथ “मेवाड़ में तेरापंथ” का विमोचन किया गया। आचार्य प्रवर ने इसके बारे में फरमाते हुए कहा कि मेवाड़ तेरापंथ धर्मसंघ की जन्मस्थली है और यहीं तेरापंथ के दूसरे और तीसरे आचार्य का जन्म हुआ और यह धरा आचार्य भिक्षु की कर्मस्थली रही है। लगभग सभी आचार्यों का इस भूमि पर विचरण हुआ है।
इस ग्रंथ के निर्माण से एक कठिन कार्य संपन्न हुआ है। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने अपने वक्तव्य में कहा कि मेवाड़ का इतिहास जो अलग-अलग बिखरा हुआ था उसको इस ग्रंथ के माध्यम से एकत्रित करने से एक विशिष्ट कार्य हुआ है। उन्होंने फरमाते हुए कहा कि इतिहास को पढ़ना सरल है परंतु इतिहास का निर्माण करना कठिन है।
डॉ. देव कोठारी ने ग्रंथ की भूमिका प्रस्तुत करते हुए इसके बारे में समग्र जानकारी दी। लक्ष्मण सिंह कर्नावट ने इस ग्रंथ के बारे में बताते हुए कहा कि तेरापंथ धर्म संघ की उद्गम स्थली मेवाड़ के विषय में यह पहला समग्र इतिहास को संकलित करने वाला ग्रंथ है। इससे पूर्व सभी जानकारियां बिखरी थी। उन सभी को प्रमाण सहित संकलित करते हुए इसका निर्माण किया गया है।