शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण ने आचार्य तुलसी चेतना केंद्र के महाश्रमण समवशरण से अपने प्रवचन मे फरमाया गया है कि जो अविनीत होता है उसे विपत्ति और जो विनीत होता है उसे संपत्ति मिलती है। यह बातें जिसे ज्ञात होती है वह व्यक्ति शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
साधु हो चाहे गृहस्थ हो अविनीत व्यक्ति किसी का प्रिय नहीं बन सकता है। विनीत और अविनीत के जीवन निर्माण की स्थिति भी अलग अलग होती है। आचार्य प्रवर ने एक कथानक के माध्यम से बताया कि एक ही समान शिक्षा प्राप्त करने वाले शिष्यों के स्वभाव से उनकी शिक्षा अलग-अलग रूपों में परिलक्षित होती है। जिस शिष्य में विनयशीलता और धैर्य प्रगाढ़ हो वह जीवन में सफल होने के साथ सुफल भी होता है।
अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह के द्वितीय दिन जीवन विज्ञान के बारे में फरमाते हुए कहा कि पुस्तक ज्ञान प्राप्त करने के साथ विद्यार्थियों को शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास की शिक्षा भी दी जाए तो उनका सर्वांगीण विकास हो सकता है और ऐसी शिक्षा प्राप्त करने वाले बालक-बालिका समाज की दृष्टि से भी उत्कृष्ट होते हैं। विद्यार्थियों को जीवन में अणुव्रत के छोटे-छोटे नियमों का बोध दिया जाए तो उनकी ज्ञान चेतना का सही दिशा में विकास हो सकता है।
उपस्थित श्रावक समाज को उद्बोधन देते हुए कहा कि सभी को अपने जीवन में ज्ञान चेतना का ऐसा विकास करना चाहिए कि उनके जीवन में संयम के प्रति विश्वास जगे। ऐसा होने से मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध हो सकती है। आचार्य प्रवर ने आचार्य महाप्रज्ञ जनशताब्दी वर्ष के उपलक्ष में महाप्रज्ञ जी की मासिक त्रयोदशी पर फरमाया कि आचार्य महाप्रज्ञ जी ने अपनी ज्ञान और ध्यान साधना से धर्मसंघ और श्रावक समाज का सर्वांगीण विकास किया।
इस अवसर पर आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के जीवन में ज्ञान और ध्यान के महत्व के बारे में मुनि श्री दीपकुमारजी, विनम्रकुमारजी, कुमारश्रमणजी जी, मननकुमारजी, समण सिद्धप्रज्ञजी, साध्वी सुनंदाश्रीजी, शशिप्रभाजी, स्वस्तिक प्रभाजी, समणी हिमांशु प्रज्ञा जी आदि ने अपने विचार रखें ।आचार्य प्रवर ने फरमाते हुए कहा कि आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने स्वयं ध्यान और ज्ञान का अर्जन किया एवं दूसरों को भी सिखाने का प्रयत्न किया। चतुर्दशी पर हाजिरी के उपलक्ष में साधु साध्वियों को आगमग्रंथ और स्वाध्याय से ज्ञान चेतना जागृत करने की प्रेरणा दी और कहा कि आगम स्वाध्याय से हमें अपने जीवन के स्तर को ऊंचा करने का प्रयास करना चाहिए। चतुर्विद्ध धर्मसंघ को विभिन्न प्रकार से ध्यान करने की प्रेरणा दी और कहा कि कार्य करते समय उसमें भाव क्रिया जोड़ दी जाए तो ध्यान सफल हो सकता है। संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार जी ने किया।