चेन्नई. पुरुषवाक्कम स्थित एएमकेएम में विराजित साध्वी कंचनकंवर व साध्वी डॉ.सुप्रभा ‘सुधा’ के सानिध्य में साध्वी डॉ.इमितप्रभा ने कहा कि जिसके जीवन में धर्म है उसका जीवन सार्थक है। जब धर्म में आगे बढ़ते हैं तो विकट परिस्थितियां, परीक्षाएं आती हैं। दीक्षा के समय स्वजन-परिजन कहते हैं साधना में परिसह, उपसर्ग, कष्ट आएंगे, तुम साधना कर पाओगे या नहीं। जब आगे बढ़ते हैं तो जो भी परीक्षाएं आती हैं, उनमें सफलता प्राप्त कर लेता है तो सिद्धि प्राप्त हो जाती है।
इसी प्रकार नमिराजा को भी इंद्र विभिन्न प्रकार से संयम से असंयम की प्रेरणा देते हैं और वे दृढ़ता से उनको उत्तर देते हैं। आगमों में कहा है- यह शरीर आत्मा का घर है और पांच इन्द्रियां और मन खिडक़ी-दरवाजे हैं। इन्हें समय पर खोलना और बंद करना है। यदि इनसे आत्मा का पतन हो रहा है तो इन्हें बंद करना और धर्म ग्रहण करने में खोलना है। मन और पंचेन्द्रियों को संवर से ढक़ना है। हममें विवेक और जाग्रति का संवर होना चाहिए।
उन्होंने कहा चाबी की तरह आस्रव और संवर के दोनों ही कार्य हैं। मनुष्य शरीर में छह छिद्र कर्म बंध भी करते हैं और कर्म निर्जरा भी। जगत में बहुत चीजें शरीर और इन्द्रियों को प्रिय होती है लेकिन उनकी अति नुकसानदायक है, उनमें सीमितता होनी चाहिए। यह हमारे विवेक पर निर्भर है। कभी बदले की भावना नहीं, बदलने की भावना रखें। बदला मिथ्यादृष्टि है और बदलना सम्यकदृष्टि है। जब पंचेन्द्रियां विषयों में लगे तो पुन: संवर में आ जाएं। उन पर रोक लगाने का विवेक होना चाहिए।
साध्वी डॉ.उन्नतिप्रभा ने कहा कि प्रत्येक मनुष्य शाश्वत सुख की खोज में लगा है, भटकना कोई नहीं चाहता। भटकता वही है जिसे पथ का ज्ञान न हो। जो अध्यात्म के आंगन में चला जाता है उसका भटकाव बंद हो जाता है। यह जीवन मैंने, आपने कितनी ही बार पाया है।
इसी तरह भटकते रहेंगे तो हमारा कुछ नहीं होने वाला। इस देह के मंदिर में स्थित चेतना को जगाने का समय आ गया है। धर्माचरण नहीं किया तो फिर से ८४ लाख में भ्रमण होगा। दशवैकालिक सूत्र में कहा है- धर्म ही उत्कृष्ट और मंगलरूप है, जिस साधक का मन इसमें रमण करे वह संसार यात्रा पूरी कर मोक्ष मंजिल पाता है। धर्म-धर्म कहने से धार्मिक नहीं बन सकते, धर्म को आचरण में उतारना होगा।
धर्म बिना सुख नहीं। भौतिकता की चकाचौंध और धर्म में अरूचि से मनुष्य दुखी है। धन कपूर के जैसे नष्ट होनेवाला है। लेकिन धर्म आकाश की तरह विशाल, अनन्त है। ज्ञानीजन कहते हैं धर्म दीपक की तरह आत्मा का अंधकार मिटाता है। हम सबके पास यह दीपक, तेल और बाती है लेकिन जरूरत है तो छोटी-सी चिंगारी से प्रकाशमान करने की। मात्र दिखावे से नहीं धर्म का आचरण करने से धार्मिक होता है।
धर्म कर्मों से मुक्त करता है। धार्मिक व्यक्ति दो तरह के हैं- एक पक्षी की तरह संकट में भौतिकता की चकाचौंध का वृक्ष छोडक़र धर्म रूपी आकाश में उड़ जाता है। दूसरा बंदर की तरह मिथ्यात्वी व्यक्ति भौतिक सुख-सुविधाओं के वृक्ष से चिपका रहता है और दुर्गति पाता है। जिनवाणी में अपनी रूचि जाग्रत करें, इस जीव का सदुपयोग करें और समय रहते कदम उठाएं तो जीवन का कल्याण हो। जिसके जीवन में धर्म है वहां यशरूपी लक्ष्मी आती है। अरिहंत वाणी हमें बार-बार सचेत कर रही है, अपनी सुप्त चेतना को जगाएं।
धर्मसभा में दिगम्बर आचार्य विद्यानंदसागरजी को श्रद्धांजलि अर्पित की गई। अनेकों तपस्वीयों ने विविध तपों के प्रत्याखान लिए। बड़ी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित रहे। 25 सितम्बर से आचार्य शिवमुनि की प्रेरणा से संचालित त्रिदिवसीय आत्मध्यान साधना शिविर होगा।