वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में जयमल जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में श्रावक के 12 व्रतों मैं छठे व्रत का विवेचन करते हुए जयधुरंधर मुनि ने कहा अनादि काल से जीवात्मा संसार में भटक रही है। भ्रमणशील संसार में प्राणी विषय, कषाय, वासना, स्वार्थ लोभ में फंसा हुआ है।
चारों गति के जीवों को भ्रमण का अत्याधिक शौक है । देवता भी बैठे बैठे उब जाते हैं तो सरोवर उद्यान आदि में घूमने निकल जाते हैं।
पशु को भी घूमना अत्यंत प्रिय है इसलिए यदि कोई उन्हें पिंजड़े या बाड़े में बंद करता है तो वह उसे बिल्कुल पसंद नहीं करते। इंसान भी समय-समय पर कभी देश तो कभी विदेश में घूमना पसंद करता है। त्यौहार, उत्सव, छुट्टी एवं मौसम में भी घूमने के लिए तत्पर रहता है।
संसार में चल रहे भटकाव का अंत करने के लिए एवं मोक्ष की यात्रा शुरू करने के लिए व्रत एकमात्र माध्यम है। आश्रव का द्वार असीमित होता है लेकिन श्रावक को 6 दिशा का परिमाण कर लेना चाहिए।
ऐसा करने से जो अनावश्यक कर्म बंध खुले हैं उनके ऊपर विराम लग जाता है। ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं में स्वयं की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु गमनागमन करना पड़ता है लेकिन यदि उसकी सीमा नहीं बांधी गई पूरे लोक में जो भी क्रियाएँ हो रही है उसका आंशिक दोष उसे लग जाता है।
व्रत ग्रहण करने से जीवन मर्यादित बन जाता है। मर्यादा का हर क्षेत्र में महत्व होता है। एक सागर या नदी के मर्यादा तोड़ने से प्रलय मच जाता है । एक देश यदि अपनी सीमा लांघ देता है तो उस समय युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो जाती है।
एक पुत्र यदि अपने पिता की या एक पत्नी यदि अपने पति की मर्यादा ना रखें तो गृहस्थ जीवन भी क्लेशमय बन जाता है। अमर्यादित जीवन में दुख ही दुख है । जहां मर्यादा है वही शांति है। हर व्यक्ति शांति चाहता है लेकिन उसके लिए उसे मर्यादा में आना जरूरी है। जो भी साधक मर्यादित जीवन जीता है उसे स्वत: ही सुख एवं शांति मिल जाती है।
संगीता चुतर के मासखमण की तपस्या के अनुमोदनार्थ संघ की तरफ से अभिनंदन पत्र , माला, चुदंडी एवं स्मृति चिन्ह से सम्मान किया गया । पिछले 11 दिनों से चल रही 11 गणधर की साधना की पूर्णाहूति पर 75 आराधिकाओं का सम्मान संघ के द्वारा किया गया। शुक्रवार को सामूहिक विगय एकासन का आयोजन होगा।